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  • दोस्तों, जीवन में चुनौतियाँ, शुरुआती असफलता या नकारात्मक लहजे में कहूँ तो समस्याएँ और परेशानियाँ उन ही लोगों के हिस्से में आती हैं जो अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये या अपने सपनों को सच करने के लिये प्रयास कर रहे होते हैं याने मेहनत कर रहे होते हैं। इसका अर्थ हुआ चुनौतियाँ, शुरुआती असफलता, समस्याएँ और परेशानियाँ कभी भी अंतिम परिणाम नहीं हो सकती हैं। यह तो सफलता की राह में मिलने वाले छोटे-छोटे पड़ाव हैं। इसीलिये तो कहा गया है, ‘जब तक आप अपनी हार स्वीकार नहीं करते, तब तक आपको कोई भी हरा नहीं सकता।’

    जी हाँ साथियों, हार-जीत, अच्छा-बुरा, सही-ग़लत आदि सभी बातें सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे नज़रिये याने घटनाओं को देखने के हमारे तरीक़े पर निर्भर करती है। इसीलिये मेरा मानना है कि अगर आप अपना जीवन अच्छा बनाना चाहते हैं, तो आपको सबसे पहले अपने नज़रिये को बेहतर बनाना होगा और यह सिर्फ़ और सिर्फ़ तब हो सकता है, जब आप तथाकथित नकारात्मक घटनाओं को सकारात्मक नज़रिये से देखना शुरू कर दें।

    आइये, कुछ नकारात्मक अनुभवों या भावों को सकारात्मक नज़रिये से देखने का प्रयास करेंगे जिससे हम हर हाल में जीवन में आगे बढ सकें।

    १) असंतोष

    जब कोई हमारी इच्छा या अपेक्षा के अनुरूप कार्य या व्यवहार नहीं करता है, तब असंतोष की स्थिति निर्मित होती है। ऐसे समय में अक्सर हम उस कार्य या व्यवहार की ज़िम्मेदारी ख़ुद पर ले लेते हैं और अपनी पूरी क्षमता के साथ उस कार्य को अच्छे से पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। इसका अर्थ हुआ सामने वाले के अपेक्षापूर्ण व्यवहार या कार्य ना कर पाने के कारण ही आपने अपने अंदर झाँका, अपनी क्षमताओं को पहचाना और अपना सर्वश्रेष्ठ देते हुए सफलता प्राप्त करी। अर्थात् आपने महानता भरा काम किया। जैसे ही आप पूरी स्थिति को इस नज़रिये से देखेंगे तो आप पायेंगे कि अब आपके अंदर सामने वाले के लिये ग़ुस्से का भाव नहीं है और अब आप इसके लिये सामने वाले के प्रति धन्यवाद के भाव से भरे हुए हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो असंतोष में धन्यवाद का भाव रखना आपको अपने अंदर झांकने का मौक़ा देता है जिसके कारण आप अपने अंदर छुपी असीमित क्षमताओं को पहचान सकते हैं और ख़ुद को महान बना सकते हैं।

    २) विफलता

    विफलता के लिये भी धन्यवाद का भाव रखें क्योंकि यह आपको अपनी कमज़ोरियों को पहचानने का मौक़ा देती है। साथ ही विफलता से प्राप्त अनुभव आपको समझदार और स्पष्ट बनाता है। जिससे आप आनेवाले समय में सही निर्णय लेकर सफलता प्राप्त कर पाते हैं।

    ३) दिल टूटने पर

    सामान्यतः दिल टूटने पर व्यक्ति स्वयम् को पूरी तरह नकारात्मक भावों के बीच घिरा हुआ और टूटा हुआ पाता है। ऐसे में अगर आप ख़ुद को याद दिलायें कि इस दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ आप हैं और इसीलिये आप ख़ुद को सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, तो आप ख़ुद को एक बार फिर रिबिल्ड कर पायेंगे। इसलिये ऐसी स्थिति में ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहें, ‘प्रभु, मुझे पूरी तरह से तोड़ने और एक नए रूप में जन्म देने के लिए धन्यवाद।’

    ४) ईर्ष्या

    ईर्ष्या सामान्यतः तुलना का नतीजा होती है। ऐसे में ख़ुद को याद दिलायें कि इस स्थिति याने तुलना ने आपको वह पहचानने का मौक़ा दिया है जो आप गुप्त रूप से हासिल करना चाहते थे या यह उस स्थिति का प्रतिबिंब है जैसे आप बनना चाहते थे।

    ५) अकेलापन

    जब भी आपको अकेलेपन का एहसास हो, ख़ुद को याद दिलायें कि यह समय इस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण, विशेष और अच्छे व्यक्ति से मिलने का अवसर है और वह विशेष व्यक्ति आप स्वयं है। याने इस समय में आप ख़ुद के साथ समय बितायें, जिससे आप ख़ुद को और बेहतर तरीक़े से जान पायेंगे। इसके साथ ही ईश्वर को धन्यवाद दें कि उन्होंने आपको आराम करने, ख़ुद को खोजने और ख़ुद की सराहना करने का मौक़ा दिया है।

    ६) विश्वासघात

    प्रभु, विश्वासघात के लिये मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ क्योंकि आपने मुझे समय रहते उन लोगों के प्रति सचेत कर दिया जो मुझे बड़ा नुक़सान पहुँचा सकते थे। दूसरे शब्दों में कहूँ तो प्रभु, समय से पूर्व सच्चाई और प्रामाणिकता से काम नहीं करने वाले लोगों के प्रति मुझे सचेत करने के लिये धन्यवाद!, इसकी सहायता से मैं अपने बड़े लक्ष्यों को अच्छे से, बिना रुकावट के पा पाऊँगा।

    ७) रिजेक्शन याने अस्वीकृति पर

    रिजेक्शन या अस्वीकृति के माध्यम से ईश्वर हमें उनसे दूर करना चाहता है जिनका साथ आने वाले जीवन को ईश्वर की योजना के अनुरूप नहीं बनाता है। इसके साथ ही ईश्वर अस्वीकृति के माध्यम से हमारे जीवन को नई दिशा देना चाहता है या हमें पुनर्निर्देशित करना चाहता है। साथ ही अगर यह रिजेक्शन या अस्वीकृति रिश्ते से संबंधित हो तो इसका तात्पर्य है कि ईश्वर आपको ख़ुद से प्यार करना सिखाना चाहता है। इस अनुपम मौक़े के लिये ईश्वर को धन्यवाद दें।

    ८) बीच राह में छोड़ने या परित्याग करने पर

    जीवन पथ पर आगे बढ़ते समय जो लोग मेरे समान प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं। जिनका साथ मुझे मेरे जीवन को ख़ुशनुमा नहीं बना सकता है, ईश्वर उनका साथ बीच राह में छुड़वा देता है; उनसे हमारा परित्याग करवा देता है। वैसे यह स्वयं को पूर्ण बनाने का ईश्वर द्वारा दिया हुआ स्वर्णिम मौक़ा होता है इसलिये इसके लिये भी ईश्वर के आभारी रहें।

    ९) दर्द के लिये

    यह ईश्वर का आपको सशक्त और मज़बूत बनाने का नायब तरीक़ा है। यह बिना किसी धारणा के आपको अपनी भावनाओं को महसूस करने का मौक़ा देता है। इसके लिये भी ईश्वर के आभारी रहें।

    दोस्तों, इन भावों और नज़रिये को विकसित करने के लिये आप ख़ुद को भी धन्यवाद कहें क्योंकि उपरोक्त अनुभव और नज़रिया आपको इस जीवन के प्रति सशक्त और पर्याप्त रूप से मज़बूत बनाता है जिससे आप हर हाल में खुश रहना सीख सकते हैं। यह आपको नकारात्मक अनुभवों के बाद ठीक होने, जीवन में आगे बढ़ने, विकास करने, बदलने, सक्षम बनने के साथ-साथ वह बनने का मौक़ा देता है, जिसके लिये ईश्वर ने आपको यह जन्म दिया है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो असफलता, परेशानी, मुश्किल या चुनौती का सामना मुस्कुरा कर करना सीख जाना असल में आपको हार को जीत में बदलना और हर हाल में खुश रहना सिखाता है।
    दोस्तों, जीवन में चुनौतियाँ, शुरुआती असफलता या नकारात्मक लहजे में कहूँ तो समस्याएँ और परेशानियाँ उन ही लोगों के हिस्से में आती हैं जो अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये या अपने सपनों को सच करने के लिये प्रयास कर रहे होते हैं याने मेहनत कर रहे होते हैं। इसका अर्थ हुआ चुनौतियाँ, शुरुआती असफलता, समस्याएँ और परेशानियाँ कभी भी अंतिम परिणाम नहीं हो सकती हैं। यह तो सफलता की राह में मिलने वाले छोटे-छोटे पड़ाव हैं। इसीलिये तो कहा गया है, ‘जब तक आप अपनी हार स्वीकार नहीं करते, तब तक आपको कोई भी हरा नहीं सकता।’ जी हाँ साथियों, हार-जीत, अच्छा-बुरा, सही-ग़लत आदि सभी बातें सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे नज़रिये याने घटनाओं को देखने के हमारे तरीक़े पर निर्भर करती है। इसीलिये मेरा मानना है कि अगर आप अपना जीवन अच्छा बनाना चाहते हैं, तो आपको सबसे पहले अपने नज़रिये को बेहतर बनाना होगा और यह सिर्फ़ और सिर्फ़ तब हो सकता है, जब आप तथाकथित नकारात्मक घटनाओं को सकारात्मक नज़रिये से देखना शुरू कर दें। आइये, कुछ नकारात्मक अनुभवों या भावों को सकारात्मक नज़रिये से देखने का प्रयास करेंगे जिससे हम हर हाल में जीवन में आगे बढ सकें। १) असंतोष जब कोई हमारी इच्छा या अपेक्षा के अनुरूप कार्य या व्यवहार नहीं करता है, तब असंतोष की स्थिति निर्मित होती है। ऐसे समय में अक्सर हम उस कार्य या व्यवहार की ज़िम्मेदारी ख़ुद पर ले लेते हैं और अपनी पूरी क्षमता के साथ उस कार्य को अच्छे से पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। इसका अर्थ हुआ सामने वाले के अपेक्षापूर्ण व्यवहार या कार्य ना कर पाने के कारण ही आपने अपने अंदर झाँका, अपनी क्षमताओं को पहचाना और अपना सर्वश्रेष्ठ देते हुए सफलता प्राप्त करी। अर्थात् आपने महानता भरा काम किया। जैसे ही आप पूरी स्थिति को इस नज़रिये से देखेंगे तो आप पायेंगे कि अब आपके अंदर सामने वाले के लिये ग़ुस्से का भाव नहीं है और अब आप इसके लिये सामने वाले के प्रति धन्यवाद के भाव से भरे हुए हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो असंतोष में धन्यवाद का भाव रखना आपको अपने अंदर झांकने का मौक़ा देता है जिसके कारण आप अपने अंदर छुपी असीमित क्षमताओं को पहचान सकते हैं और ख़ुद को महान बना सकते हैं। २) विफलता विफलता के लिये भी धन्यवाद का भाव रखें क्योंकि यह आपको अपनी कमज़ोरियों को पहचानने का मौक़ा देती है। साथ ही विफलता से प्राप्त अनुभव आपको समझदार और स्पष्ट बनाता है। जिससे आप आनेवाले समय में सही निर्णय लेकर सफलता प्राप्त कर पाते हैं। ३) दिल टूटने पर सामान्यतः दिल टूटने पर व्यक्ति स्वयम् को पूरी तरह नकारात्मक भावों के बीच घिरा हुआ और टूटा हुआ पाता है। ऐसे में अगर आप ख़ुद को याद दिलायें कि इस दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ आप हैं और इसीलिये आप ख़ुद को सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, तो आप ख़ुद को एक बार फिर रिबिल्ड कर पायेंगे। इसलिये ऐसी स्थिति में ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहें, ‘प्रभु, मुझे पूरी तरह से तोड़ने और एक नए रूप में जन्म देने के लिए धन्यवाद।’ ४) ईर्ष्या ईर्ष्या सामान्यतः तुलना का नतीजा होती है। ऐसे में ख़ुद को याद दिलायें कि इस स्थिति याने तुलना ने आपको वह पहचानने का मौक़ा दिया है जो आप गुप्त रूप से हासिल करना चाहते थे या यह उस स्थिति का प्रतिबिंब है जैसे आप बनना चाहते थे। ५) अकेलापन जब भी आपको अकेलेपन का एहसास हो, ख़ुद को याद दिलायें कि यह समय इस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण, विशेष और अच्छे व्यक्ति से मिलने का अवसर है और वह विशेष व्यक्ति आप स्वयं है। याने इस समय में आप ख़ुद के साथ समय बितायें, जिससे आप ख़ुद को और बेहतर तरीक़े से जान पायेंगे। इसके साथ ही ईश्वर को धन्यवाद दें कि उन्होंने आपको आराम करने, ख़ुद को खोजने और ख़ुद की सराहना करने का मौक़ा दिया है। ६) विश्वासघात प्रभु, विश्वासघात के लिये मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ क्योंकि आपने मुझे समय रहते उन लोगों के प्रति सचेत कर दिया जो मुझे बड़ा नुक़सान पहुँचा सकते थे। दूसरे शब्दों में कहूँ तो प्रभु, समय से पूर्व सच्चाई और प्रामाणिकता से काम नहीं करने वाले लोगों के प्रति मुझे सचेत करने के लिये धन्यवाद!, इसकी सहायता से मैं अपने बड़े लक्ष्यों को अच्छे से, बिना रुकावट के पा पाऊँगा। ७) रिजेक्शन याने अस्वीकृति पर रिजेक्शन या अस्वीकृति के माध्यम से ईश्वर हमें उनसे दूर करना चाहता है जिनका साथ आने वाले जीवन को ईश्वर की योजना के अनुरूप नहीं बनाता है। इसके साथ ही ईश्वर अस्वीकृति के माध्यम से हमारे जीवन को नई दिशा देना चाहता है या हमें पुनर्निर्देशित करना चाहता है। साथ ही अगर यह रिजेक्शन या अस्वीकृति रिश्ते से संबंधित हो तो इसका तात्पर्य है कि ईश्वर आपको ख़ुद से प्यार करना सिखाना चाहता है। इस अनुपम मौक़े के लिये ईश्वर को धन्यवाद दें। ८) बीच राह में छोड़ने या परित्याग करने पर जीवन पथ पर आगे बढ़ते समय जो लोग मेरे समान प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं। जिनका साथ मुझे मेरे जीवन को ख़ुशनुमा नहीं बना सकता है, ईश्वर उनका साथ बीच राह में छुड़वा देता है; उनसे हमारा परित्याग करवा देता है। वैसे यह स्वयं को पूर्ण बनाने का ईश्वर द्वारा दिया हुआ स्वर्णिम मौक़ा होता है इसलिये इसके लिये भी ईश्वर के आभारी रहें। ९) दर्द के लिये यह ईश्वर का आपको सशक्त और मज़बूत बनाने का नायब तरीक़ा है। यह बिना किसी धारणा के आपको अपनी भावनाओं को महसूस करने का मौक़ा देता है। इसके लिये भी ईश्वर के आभारी रहें। दोस्तों, इन भावों और नज़रिये को विकसित करने के लिये आप ख़ुद को भी धन्यवाद कहें क्योंकि उपरोक्त अनुभव और नज़रिया आपको इस जीवन के प्रति सशक्त और पर्याप्त रूप से मज़बूत बनाता है जिससे आप हर हाल में खुश रहना सीख सकते हैं। यह आपको नकारात्मक अनुभवों के बाद ठीक होने, जीवन में आगे बढ़ने, विकास करने, बदलने, सक्षम बनने के साथ-साथ वह बनने का मौक़ा देता है, जिसके लिये ईश्वर ने आपको यह जन्म दिया है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो असफलता, परेशानी, मुश्किल या चुनौती का सामना मुस्कुरा कर करना सीख जाना असल में आपको हार को जीत में बदलना और हर हाल में खुश रहना सिखाता है।
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  • दोस्तों, आज कहीं ना कहीं हम सभी में ‘मैं’ याने अहम् का भाव इतना अधिक बलवती होता जा रहा है की हम ‘प्रेम’ को भूलते जा रहे हैं। जबकि मेरा मानना है कि ‘प्रेम’, ‘मैं’ से कई गुणा बलवान है। लेकिन आजकल परिवार और समाज में हम इसका बिलकुल विपरीत माहौल देखते हैं। अपनी बात को मैं आपको एक घटना के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ।

    हाल ही में कन्सल्टेंसी के कार्य हेतु एक संस्था में जाने का मौक़ा मिला। शुरुआती दौर की बातचीत के बाद जब हमने पिछले माह की गई गतिविधियों पर चर्चा करना शुरू की तो एक डायरेक्टर कमी निकालने पर बहुत ज़्यादा नाराज़ हो गये। नाराज़गी के दौरान उन्होंने शब्दों की सीमा को कई बार पार किया, जिसके कारण वहाँ का माहौल पूरी तरह विषाक्त हो गया और मीटिंग को बिना निर्णय के ही बीच में समाप्त करना पड़ा। वैसे ऐसा वहाँ पहली बार नहीं हुआ था, उक्त डायरेक्टर की इस आदत से बाक़ी सभी सदस्यों के मन में काफ़ी नाराज़गी थी।

    वैसे यह स्थिति सिर्फ़ उस संस्था की नहीं थी अपितु आजकल आपको ज्यादातर घरों में भी यही माहौल अर्थात् ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का वातावरण देखने को मिलता है। मेरी नज़र में इसकी मुख्य वजह आपसी प्रेम का ना होना है। उदाहरण के लिये मान लीजिये आप किसी से प्रेम करते हैं और वह आपसे ऊँची आवाज़ में बात करता है। अब आप बताइये ऐसी स्थिति में आप क्या करेंगे? निश्चित तौर पर आप इसे नज़रंदाज़ करेंगे क्योंकि आप सामने वाले से प्रेम करते हैं। चलिये अब हम दूसरी स्थिति पर विचार करते हैं, अगर आपको सामने वाले से प्रेम नहीं होता तो क्या आप उसकी बातें सुनते? निश्चित तौर पर नहीं। दोस्तों, इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ आपकी प्रतिक्रिया आपसी प्रेम पर निर्भर थी।

    लेकिन, अगर आपका लक्ष्य जीवन को सरल बनाना है तो मेरा एक सुझाव है । प्रेम को अपने जीवन का अंग बना लें और जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है, उसे तेज आवाज में बोलकर और चिल्लाकर करवाना बंद कर दें। इसके साथ ही जो काम केवल गुस्सा दिखाकर हो सकता है, उसके लिए वास्तव में गुस्सा करना छोड़ दें। मेरी नज़र में अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये यह एक बुद्धिमता पूर्ण निर्णय होगा।

    वैसे भी साथियों, अपनी बात मनवाने के लिए अपने अधिकार या बल का प्रयोग करना पूरी तरह अक्षमता का लक्षण होता है। हक़ीकत में प्रेम ही एक मात्र ऐसा हथियार है, जिससे सारी दुनिया को जीता जा सकता है। इसीलिये दोस्तों प्रेम से किसी के ऊपर विजय प्राप्त करने को ही सच्ची विजय माना गया है। याद रखियेगा, आज प्रत्येक घर या समाज में ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का जो वातावरण है उसका एक ही कारण है और वह है प्रेम का अभाव। जिस तरह आग को आग नहीं, पानी बुझाता है। ठीक उसी तरह ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति को इनके नहीं प्रेम के जरिये मिटाया जा सकता है। जी हाँ, प्रेम से दुनिया को तो क्या दुनिया बनाने वाले तक को जीता जा सकता है और इंसान तो क्या, पशु-पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते हैं। तो आइये साथियों आज से प्रेम बाँटते हैं और आने वाले समय में अपने जीवन को इसकी सुगंध से सुगंधित बनाते हैं।
    दोस्तों, आज कहीं ना कहीं हम सभी में ‘मैं’ याने अहम् का भाव इतना अधिक बलवती होता जा रहा है की हम ‘प्रेम’ को भूलते जा रहे हैं। जबकि मेरा मानना है कि ‘प्रेम’, ‘मैं’ से कई गुणा बलवान है। लेकिन आजकल परिवार और समाज में हम इसका बिलकुल विपरीत माहौल देखते हैं। अपनी बात को मैं आपको एक घटना के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ। हाल ही में कन्सल्टेंसी के कार्य हेतु एक संस्था में जाने का मौक़ा मिला। शुरुआती दौर की बातचीत के बाद जब हमने पिछले माह की गई गतिविधियों पर चर्चा करना शुरू की तो एक डायरेक्टर कमी निकालने पर बहुत ज़्यादा नाराज़ हो गये। नाराज़गी के दौरान उन्होंने शब्दों की सीमा को कई बार पार किया, जिसके कारण वहाँ का माहौल पूरी तरह विषाक्त हो गया और मीटिंग को बिना निर्णय के ही बीच में समाप्त करना पड़ा। वैसे ऐसा वहाँ पहली बार नहीं हुआ था, उक्त डायरेक्टर की इस आदत से बाक़ी सभी सदस्यों के मन में काफ़ी नाराज़गी थी। वैसे यह स्थिति सिर्फ़ उस संस्था की नहीं थी अपितु आजकल आपको ज्यादातर घरों में भी यही माहौल अर्थात् ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का वातावरण देखने को मिलता है। मेरी नज़र में इसकी मुख्य वजह आपसी प्रेम का ना होना है। उदाहरण के लिये मान लीजिये आप किसी से प्रेम करते हैं और वह आपसे ऊँची आवाज़ में बात करता है। अब आप बताइये ऐसी स्थिति में आप क्या करेंगे? निश्चित तौर पर आप इसे नज़रंदाज़ करेंगे क्योंकि आप सामने वाले से प्रेम करते हैं। चलिये अब हम दूसरी स्थिति पर विचार करते हैं, अगर आपको सामने वाले से प्रेम नहीं होता तो क्या आप उसकी बातें सुनते? निश्चित तौर पर नहीं। दोस्तों, इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ आपकी प्रतिक्रिया आपसी प्रेम पर निर्भर थी। लेकिन, अगर आपका लक्ष्य जीवन को सरल बनाना है तो मेरा एक सुझाव है । प्रेम को अपने जीवन का अंग बना लें और जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है, उसे तेज आवाज में बोलकर और चिल्लाकर करवाना बंद कर दें। इसके साथ ही जो काम केवल गुस्सा दिखाकर हो सकता है, उसके लिए वास्तव में गुस्सा करना छोड़ दें। मेरी नज़र में अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये यह एक बुद्धिमता पूर्ण निर्णय होगा। वैसे भी साथियों, अपनी बात मनवाने के लिए अपने अधिकार या बल का प्रयोग करना पूरी तरह अक्षमता का लक्षण होता है। हक़ीकत में प्रेम ही एक मात्र ऐसा हथियार है, जिससे सारी दुनिया को जीता जा सकता है। इसीलिये दोस्तों प्रेम से किसी के ऊपर विजय प्राप्त करने को ही सच्ची विजय माना गया है। याद रखियेगा, आज प्रत्येक घर या समाज में ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का जो वातावरण है उसका एक ही कारण है और वह है प्रेम का अभाव। जिस तरह आग को आग नहीं, पानी बुझाता है। ठीक उसी तरह ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति को इनके नहीं प्रेम के जरिये मिटाया जा सकता है। जी हाँ, प्रेम से दुनिया को तो क्या दुनिया बनाने वाले तक को जीता जा सकता है और इंसान तो क्या, पशु-पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते हैं। तो आइये साथियों आज से प्रेम बाँटते हैं और आने वाले समय में अपने जीवन को इसकी सुगंध से सुगंधित बनाते हैं।
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  • दोस्तों, अक्सर अभिमान को स्वाभिमान मान लेना एक ऐसी गलती है जो ज़्यादातर लोग अनजाने में कर जाते हैं। हो सकता है अब आप मेरी इस बात से भ्रमित हो रहे होंगे कि ‘अभिमान’ नकारात्मक कैसे हो गया? चलिये अपनी बात को मैं आपको एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ। बात आज से कुछ वर्ष पूर्व की है, इंदौर के समीप एक विद्यालय में एक कर्मचारी को छोटी सी गलती के कारण प्राचार्य द्वारा नौकरी से निकाल दिया गया। कुछ दिनों बाद निकाले गये व्यक्ति ने विद्यालय प्रबंधन समिति से संपर्क करा और उन्हें पूरी स्थिति से अवगत कराया। जिसके पश्चात समिति द्वारा उनकी नौकरी को बहाल कर दिया गया।

    उक्त निर्णय जब प्राचार्य को पता चला तो उन्होंने इसे अपनी तौहीन मान लिया और उस दिन के पश्चात वे अपने पद का लाभ उठाकर उस छोटे से कर्मचारी को बार-बार परेशान और प्रताड़ित करने लगे। संस्था के प्रति अपनी वफ़ादारी और मजबूरी के कारण वह कर्मचारी बिना विरोध किए सब-कुछ सहने लगा। हालाँकि विद्यालय में मौजूद अन्य कर्मचारी उसकी इस स्थिति को बहुत अच्छे से समझ रहे थे। लेकिन उनमें से कोई भी प्राचार्य के ख़िलाफ़ जाकर उस कर्मचारी का पक्ष लेने के लिये राज़ी नहीं था, सिवाए एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के। उसके सिवा हर कोई सिर्फ़ यह सोच रहा था, ‘कौन फ़ालतू के पंगे में पड़े।’

    अब अगर आप पूरी घटना को विश्लेषणात्मक नज़रिये से देखेंगे तो पायेंगे कि प्राचार्य उक्त कर्मचारी को नीचा दिखाने का प्रयास कर यह जताना चाह रहे थे कि ‘मेरे ख़िलाफ़ जाओगे तो बच नहीं पाओगे।’ या दूसरे शब्दों में कहूँ तो तालाब में रहकर मगरमच्छ से बैर लेकर बचना संभव नहीं है। इसके विपरीत यह सब जानने के बाद भी रिस्क लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी सच्चाई का साथ दे रहा था। प्राचार्य और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के नज़रिये का अंतर ही साथियों अभिमान और स्वाभिमान का अंतर है।

    चलिये इसे थोड़ा और विस्तार से समझ लेते हैं। प्राचार्य का नज़रिया अपनी बात पर अड़े रहने और दूसरे को नीचा दिखाने याने ख़ुद को सही सिद्ध करने वाला था और मेरी नज़र में इन बातों का होना, स्वाभिमानी होना नहीं होता है। स्वाभिमानी तो वह होता है जो सामने वाले के पद, हैसियत, जात, रंग-रूप आदि किसी भी बात पर ध्यान दिये बिना अथवा किसी के भी दबाव में आये बिना सामने वाले को यथायोग्य सम्मान देते हुए, सत्य पर अडिग रहे।

    इसके विपरीत दोस्तों प्राचार्य का व्यवहार अपने अहंकार को बढ़ावा देने वाला था, जो अभिमानी होने की निशानी है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो, जो मैं कह रहा हूँ वही सही या सत्य है, का भाव रखना अभिमानी होने का लक्षण है। याद रखियेगा साथियों, स्वाभिमानी व्यक्ति हर हाल में सत्य के साथ खड़ा रहता है। वह सत्य की रक्षा करने के लिये स्वयं कष्ट सहन करने को तैयार रहता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो स्वाभिमानी व्यक्ति ना तो ख़ुद किसी को कष्ट देता है और ना ही कष्ट देने वाले का साथ देता है। वह तो दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा करते हुए स्वयं कष्ट सहता है।

    इस आधार पर कहा जाये तो मैं जो कह रहा हूँ वही सत्य है, यह अभिमानी का लक्षण है और जो सत्य है, वह मैं स्वीकार लूँगा, यह स्वाभिमानी होने का लक्षण है। याद रखियेगा साथियों, अपने आत्म गौरव की प्रतिष्ठा जरुर बनी रहनी चाहिए मगर किसी को अकारण, अनावश्यक झुकाकर, गिराकर अथवा रुलाकर नहीं।

    दोस्तों, अक्सर अभिमान को स्वाभिमान मान लेना एक ऐसी गलती है जो ज़्यादातर लोग अनजाने में कर जाते हैं। हो सकता है अब आप मेरी इस बात से भ्रमित हो रहे होंगे कि ‘अभिमान’ नकारात्मक कैसे हो गया? चलिये अपनी बात को मैं आपको एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ। बात आज से कुछ वर्ष पूर्व की है, इंदौर के समीप एक विद्यालय में एक कर्मचारी को छोटी सी गलती के कारण प्राचार्य द्वारा नौकरी से निकाल दिया गया। कुछ दिनों बाद निकाले गये व्यक्ति ने विद्यालय प्रबंधन समिति से संपर्क करा और उन्हें पूरी स्थिति से अवगत कराया। जिसके पश्चात समिति द्वारा उनकी नौकरी को बहाल कर दिया गया। उक्त निर्णय जब प्राचार्य को पता चला तो उन्होंने इसे अपनी तौहीन मान लिया और उस दिन के पश्चात वे अपने पद का लाभ उठाकर उस छोटे से कर्मचारी को बार-बार परेशान और प्रताड़ित करने लगे। संस्था के प्रति अपनी वफ़ादारी और मजबूरी के कारण वह कर्मचारी बिना विरोध किए सब-कुछ सहने लगा। हालाँकि विद्यालय में मौजूद अन्य कर्मचारी उसकी इस स्थिति को बहुत अच्छे से समझ रहे थे। लेकिन उनमें से कोई भी प्राचार्य के ख़िलाफ़ जाकर उस कर्मचारी का पक्ष लेने के लिये राज़ी नहीं था, सिवाए एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के। उसके सिवा हर कोई सिर्फ़ यह सोच रहा था, ‘कौन फ़ालतू के पंगे में पड़े।’ अब अगर आप पूरी घटना को विश्लेषणात्मक नज़रिये से देखेंगे तो पायेंगे कि प्राचार्य उक्त कर्मचारी को नीचा दिखाने का प्रयास कर यह जताना चाह रहे थे कि ‘मेरे ख़िलाफ़ जाओगे तो बच नहीं पाओगे।’ या दूसरे शब्दों में कहूँ तो तालाब में रहकर मगरमच्छ से बैर लेकर बचना संभव नहीं है। इसके विपरीत यह सब जानने के बाद भी रिस्क लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी सच्चाई का साथ दे रहा था। प्राचार्य और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के नज़रिये का अंतर ही साथियों अभिमान और स्वाभिमान का अंतर है। चलिये इसे थोड़ा और विस्तार से समझ लेते हैं। प्राचार्य का नज़रिया अपनी बात पर अड़े रहने और दूसरे को नीचा दिखाने याने ख़ुद को सही सिद्ध करने वाला था और मेरी नज़र में इन बातों का होना, स्वाभिमानी होना नहीं होता है। स्वाभिमानी तो वह होता है जो सामने वाले के पद, हैसियत, जात, रंग-रूप आदि किसी भी बात पर ध्यान दिये बिना अथवा किसी के भी दबाव में आये बिना सामने वाले को यथायोग्य सम्मान देते हुए, सत्य पर अडिग रहे। इसके विपरीत दोस्तों प्राचार्य का व्यवहार अपने अहंकार को बढ़ावा देने वाला था, जो अभिमानी होने की निशानी है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो, जो मैं कह रहा हूँ वही सही या सत्य है, का भाव रखना अभिमानी होने का लक्षण है। याद रखियेगा साथियों, स्वाभिमानी व्यक्ति हर हाल में सत्य के साथ खड़ा रहता है। वह सत्य की रक्षा करने के लिये स्वयं कष्ट सहन करने को तैयार रहता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो स्वाभिमानी व्यक्ति ना तो ख़ुद किसी को कष्ट देता है और ना ही कष्ट देने वाले का साथ देता है। वह तो दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा करते हुए स्वयं कष्ट सहता है। इस आधार पर कहा जाये तो मैं जो कह रहा हूँ वही सत्य है, यह अभिमानी का लक्षण है और जो सत्य है, वह मैं स्वीकार लूँगा, यह स्वाभिमानी होने का लक्षण है। याद रखियेगा साथियों, अपने आत्म गौरव की प्रतिष्ठा जरुर बनी रहनी चाहिए मगर किसी को अकारण, अनावश्यक झुकाकर, गिराकर अथवा रुलाकर नहीं।
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  • आइये दोस्तों आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। बात कई साल पुरानी है, रामपुर के धर्मपरायण राजा ने अपनी प्रजा के मन में धार्मिक आस्था जगाने के उद्देश्य से रामकथा करवाने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने नगर के सभी ब्राह्मणों को आमंत्रित किया और सबको रामायण की एक-एक प्रति भेंट करते हुए निवेदन किया कि कल से सभी मंदिर प्रांगण में रामकथा का वाचन करेंगे।

    अगले दिन तय समय पर मंदिर प्रांगण में सभी ब्राह्मण पहुँच गये। इनमें एक ब्राह्मण ऐसा भी था जो पढ़ना नहीं जानता था। उसने सबसे पीछे बैठने का निर्णय यह सोचते हुए लिया कि जब पास वाला पन्ना पलटेगा तब मैं भी पन्ना पलट लूँगा। रामायण पाठ शुरू होने के बाद जब काफ़ी देर तक पड़ोसी ने पन्ना नहीं पलटा तो इस ब्राह्मण को चिंता हो गई कि अगर महाराज ने कुछ पूछ लिया तो मैं क्या कहूँगा? कुछ देर पश्चात सभी ब्राह्मणों का सम्मान करने के लिये महाराज प्रांगण में पहुँचे। उन्हें ऐसा करते देख अनपढ़ ब्राह्मण डर गया और रट लगाने लगा कि ‘अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा… अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा…!’ उसे ऐसा करते देख पास बैठे ब्राह्मण ने कहना शुरू कर दिया कि ‘तेरी गति सो मेरी गति… तेरी गति सो मेरी गति…!’ इतने में ही वहीं बैठे तीसरे ब्राह्मण ने दोहराना शुरू कर दिया कि ‘ये पोल कब तक चलेगी… ये पोल कब तक चलेगी…!’ इन तीनों को ऐसा करते देख पास ही बैठे चौथे ब्राह्मण ने मुँह नीचे कर मुस्कुराते हुए रटना शुरू कर दिया, ‘जब तक चलता है, चलने दे… जब तक चलता है, चलने दे…!’

    कुछ समय पश्चात् जैसे ही राजा इनके समीप पहुँचे तो इन चारों की लयबद्ध बात को सुन चौंक गये। कुछ पलों तक अपने दिमाग़ पर ज़ोर देने के बाद वे बोले, ‘यह चारों पंडित क्या गा रहे हैं हमें तो समझ नहीं आ रहा है।' पहला कह रहा है, ‘अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा…’ दूसरा कह रहा है, ‘तेरी गति सो मेरी गति…’ तीसरा दोहरा रहा है, ‘ये पोल कब तक चलेगी…’ और चौथा तो रट लगाये बैठा है, ‘जब तक चलता है, चलने दे…’ इसके बाद महाराज कुछ पल को शांत हुए फिर बोले, ‘रामायण में तो हमने यह वाक्य कभी नहीं सुने !’

    महाराज की बात सुन बुद्धिमान कथावाचक ब्राह्मणों का बचाव करते हुए बोले, ‘महाराज, चारों ब्राह्मण रामायण की ही व्याख्या कर रहे हैं। पहला ब्राह्मण अयोध्याकाण्ड की व्याख्या कर रहा है। जब सुमंत श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी को वन में छोड़ कर घर लौट रहे होते हैं तब वे चिंतित होते हुए कहते हैं, ‘राजा, पूछेंगे तो मैं क्या कहूँगा?’ और दूसरे ब्राह्मण जो दोहरा रहे थे कि ‘तेरी गति सो मेरी गति’ वे बड़े ज्ञानी हैं। किष्किन्धाकाण्ड में जब हनुमान जी, श्री राम और लक्ष्मण को अपने कंधों पर बैठा कर सुग्रीव के पास ले गये थे, तब भगवान श्री राम जी ने सुग्रीव से कहा था, ‘तेरी गति सो मेरी गति। तेरी पत्नी को बाली ने रख लिया और मेरी पत्नी का हरण रावण ने कर लिया।’

    एक पल शांत रहने के बाद कथावाचक बड़ी विनम्रता के साथ बोले, ‘महाराज, तीसरे ब्राह्मण लंकाकांड की एक घटना के बारे में बता रहे हैं। अंगद जब रावण की सभा में अपना पैर जमाए खड़ा था, तब मेघनाथ ने अपने पिता रावण से कहा था, ‘पिताश्री, यह पोल कब तक चलेगी? पहले एक वानर आया और हमारी पूरी लंका में आग लगा कर चला गया और अब यह दूसरा कह रहा है की कोई मेरे पैर को हिला दे तो भगवान श्री राम बिना युद्ध करे ही यहाँ से लौट जाएँगे।’ और चौथे ब्राह्मण जो इन सबमें सबसे विद्वान हैं, वे मंदोदरी और रावण के संवाद के बारे में बात कर रहे हैं। मंदोदरी ने अपने पति रावण से कई बार कहा था, ‘स्वामी! आप जिद्द छोड़, सीता जी को आदर सहित राम जी को सौंप दो अन्यथा अनर्थ हो जायगा।’ तब रावण ने जवाब देते हुए मंदोदरी से कहा था कि जब तक चलता है चलने दे। मेरे तो दोनों हाथ में लड्डू हैं, अगर में राम के हाथों मारा गया तो मेरी मुक्ति हो जाएगी। इस अधम शरीर से भजन-वजन तो कुछ होता नहीं और अगर मैं युद्द जीत गया तो त्रिलोक में भी मेरी जय-जयकार होने लगेगी।’ चारों ब्राह्मणों के द्वारा कही बात की व्याख्या कथावाचक से सुन राजा बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने कथावाचक सहित उन चारों ब्राह्मणों को स्वर्ण मुद्राओं के साथ कई बहुमूल्य चीजें दान स्वरूप देकर विदा किया।

    दोस्तों वैसे तो इस कहानी का संदेश बड़ा स्पष्ट है और निश्चित तौर पर आप उसे समझ ही गये होंगे। लेकिन फिर भी हम संक्षेप में उस पर चर्चा कर लेते हैं। अगर आप चारों ब्राह्मणों द्वारा कही गई बात पर गौर करेंगे तो पाएँगे कि वास्तव में इनका रामायण से कोई लेना-देना नहीं था और वे पढ़ना-लिखना ना आने के कारण इन बातों को डर और घबराहट की वजह से दोहरा रहे थे। आप स्वयं सोच कर देखिये अगर महाराज को यह बात पता लग जाती तो उन ब्राह्मणों का क्या हश्र होता? लेकिन ऐसा कुछ होता उसके पहले ही विद्वान् कथावाचक द्वारा उसकी इतनी सुंदर व्याख्या की गई कि वहाँ राजा सहित सभी मौजूद लोग उन्हें विद्वान् मानने लगे और अंत में उन्हें ढेर सारा दान मिला। इसीलिये दोस्तों हमारे यहाँ संगत या साथ को इतना महत्वपूर्ण बताया जाता है। तो आइये साथियों आज से अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये अपनी संगत को बेहतर बनाते हैं।
    आइये दोस्तों आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। बात कई साल पुरानी है, रामपुर के धर्मपरायण राजा ने अपनी प्रजा के मन में धार्मिक आस्था जगाने के उद्देश्य से रामकथा करवाने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने नगर के सभी ब्राह्मणों को आमंत्रित किया और सबको रामायण की एक-एक प्रति भेंट करते हुए निवेदन किया कि कल से सभी मंदिर प्रांगण में रामकथा का वाचन करेंगे। अगले दिन तय समय पर मंदिर प्रांगण में सभी ब्राह्मण पहुँच गये। इनमें एक ब्राह्मण ऐसा भी था जो पढ़ना नहीं जानता था। उसने सबसे पीछे बैठने का निर्णय यह सोचते हुए लिया कि जब पास वाला पन्ना पलटेगा तब मैं भी पन्ना पलट लूँगा। रामायण पाठ शुरू होने के बाद जब काफ़ी देर तक पड़ोसी ने पन्ना नहीं पलटा तो इस ब्राह्मण को चिंता हो गई कि अगर महाराज ने कुछ पूछ लिया तो मैं क्या कहूँगा? कुछ देर पश्चात सभी ब्राह्मणों का सम्मान करने के लिये महाराज प्रांगण में पहुँचे। उन्हें ऐसा करते देख अनपढ़ ब्राह्मण डर गया और रट लगाने लगा कि ‘अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा… अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा…!’ उसे ऐसा करते देख पास बैठे ब्राह्मण ने कहना शुरू कर दिया कि ‘तेरी गति सो मेरी गति… तेरी गति सो मेरी गति…!’ इतने में ही वहीं बैठे तीसरे ब्राह्मण ने दोहराना शुरू कर दिया कि ‘ये पोल कब तक चलेगी… ये पोल कब तक चलेगी…!’ इन तीनों को ऐसा करते देख पास ही बैठे चौथे ब्राह्मण ने मुँह नीचे कर मुस्कुराते हुए रटना शुरू कर दिया, ‘जब तक चलता है, चलने दे… जब तक चलता है, चलने दे…!’ कुछ समय पश्चात् जैसे ही राजा इनके समीप पहुँचे तो इन चारों की लयबद्ध बात को सुन चौंक गये। कुछ पलों तक अपने दिमाग़ पर ज़ोर देने के बाद वे बोले, ‘यह चारों पंडित क्या गा रहे हैं हमें तो समझ नहीं आ रहा है।' पहला कह रहा है, ‘अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा…’ दूसरा कह रहा है, ‘तेरी गति सो मेरी गति…’ तीसरा दोहरा रहा है, ‘ये पोल कब तक चलेगी…’ और चौथा तो रट लगाये बैठा है, ‘जब तक चलता है, चलने दे…’ इसके बाद महाराज कुछ पल को शांत हुए फिर बोले, ‘रामायण में तो हमने यह वाक्य कभी नहीं सुने !’ महाराज की बात सुन बुद्धिमान कथावाचक ब्राह्मणों का बचाव करते हुए बोले, ‘महाराज, चारों ब्राह्मण रामायण की ही व्याख्या कर रहे हैं। पहला ब्राह्मण अयोध्याकाण्ड की व्याख्या कर रहा है। जब सुमंत श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी को वन में छोड़ कर घर लौट रहे होते हैं तब वे चिंतित होते हुए कहते हैं, ‘राजा, पूछेंगे तो मैं क्या कहूँगा?’ और दूसरे ब्राह्मण जो दोहरा रहे थे कि ‘तेरी गति सो मेरी गति’ वे बड़े ज्ञानी हैं। किष्किन्धाकाण्ड में जब हनुमान जी, श्री राम और लक्ष्मण को अपने कंधों पर बैठा कर सुग्रीव के पास ले गये थे, तब भगवान श्री राम जी ने सुग्रीव से कहा था, ‘तेरी गति सो मेरी गति। तेरी पत्नी को बाली ने रख लिया और मेरी पत्नी का हरण रावण ने कर लिया।’ एक पल शांत रहने के बाद कथावाचक बड़ी विनम्रता के साथ बोले, ‘महाराज, तीसरे ब्राह्मण लंकाकांड की एक घटना के बारे में बता रहे हैं। अंगद जब रावण की सभा में अपना पैर जमाए खड़ा था, तब मेघनाथ ने अपने पिता रावण से कहा था, ‘पिताश्री, यह पोल कब तक चलेगी? पहले एक वानर आया और हमारी पूरी लंका में आग लगा कर चला गया और अब यह दूसरा कह रहा है की कोई मेरे पैर को हिला दे तो भगवान श्री राम बिना युद्ध करे ही यहाँ से लौट जाएँगे।’ और चौथे ब्राह्मण जो इन सबमें सबसे विद्वान हैं, वे मंदोदरी और रावण के संवाद के बारे में बात कर रहे हैं। मंदोदरी ने अपने पति रावण से कई बार कहा था, ‘स्वामी! आप जिद्द छोड़, सीता जी को आदर सहित राम जी को सौंप दो अन्यथा अनर्थ हो जायगा।’ तब रावण ने जवाब देते हुए मंदोदरी से कहा था कि जब तक चलता है चलने दे। मेरे तो दोनों हाथ में लड्डू हैं, अगर में राम के हाथों मारा गया तो मेरी मुक्ति हो जाएगी। इस अधम शरीर से भजन-वजन तो कुछ होता नहीं और अगर मैं युद्द जीत गया तो त्रिलोक में भी मेरी जय-जयकार होने लगेगी।’ चारों ब्राह्मणों के द्वारा कही बात की व्याख्या कथावाचक से सुन राजा बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने कथावाचक सहित उन चारों ब्राह्मणों को स्वर्ण मुद्राओं के साथ कई बहुमूल्य चीजें दान स्वरूप देकर विदा किया। दोस्तों वैसे तो इस कहानी का संदेश बड़ा स्पष्ट है और निश्चित तौर पर आप उसे समझ ही गये होंगे। लेकिन फिर भी हम संक्षेप में उस पर चर्चा कर लेते हैं। अगर आप चारों ब्राह्मणों द्वारा कही गई बात पर गौर करेंगे तो पाएँगे कि वास्तव में इनका रामायण से कोई लेना-देना नहीं था और वे पढ़ना-लिखना ना आने के कारण इन बातों को डर और घबराहट की वजह से दोहरा रहे थे। आप स्वयं सोच कर देखिये अगर महाराज को यह बात पता लग जाती तो उन ब्राह्मणों का क्या हश्र होता? लेकिन ऐसा कुछ होता उसके पहले ही विद्वान् कथावाचक द्वारा उसकी इतनी सुंदर व्याख्या की गई कि वहाँ राजा सहित सभी मौजूद लोग उन्हें विद्वान् मानने लगे और अंत में उन्हें ढेर सारा दान मिला। इसीलिये दोस्तों हमारे यहाँ संगत या साथ को इतना महत्वपूर्ण बताया जाता है। तो आइये साथियों आज से अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये अपनी संगत को बेहतर बनाते हैं।
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  • दोस्तों, हम सब जानते हैं कि ‘संगत से रंगत बदलती है’ याने हम जिस माहौल या जिन लोगों के बीच रहते हैं उसका प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है और हम वैसे ही बनते जाते हैं। लेकिन इसके बाद भी अनजाने या अज्ञानता में हम कई बार ऐसी संगत चुन लेते हैं जो हमें काफ़ी नुक़सान पहुँचाती है। अपनी बात को मैं आपको एक क़िस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ।

    बात लगभग २ वर्ष पूर्व की है। एक दिन सुबह एक सज्जन अपने बच्चे के प्लेस्कूल में आये और रिसेप्शन पर बैठे कर्मचारी को एक नम्बर देते हुए बोले, ‘सर, मैं अक्सर बाहर रहता हूँ इसलिये कृपया इसके चाचा के नंबर को आप विद्यालय के ग्रुप में जोड़ दें, जिससे विद्यालय संबंधी सारी जानकारी समय से मिल सके।’ बच्चे के हित को मद्देनज़र रखते हुए विद्यालय प्रबंधन द्वारा तुरंत उस नंबर को ग्रुप में जोड़ दिया गया।

    कुछ दिनों तक तो सब ठीक चलता रहा। लेकिन अचानक ही विद्यालय प्रबंधन ने नोटिस किया कि पिछले कुछ दिनों में पालकों द्वारा की जाने वाली शिकायतों की संख्या बढ़ने लगी है। विद्यालय प्रबंधन इसकी वजह समझ पाता उसके पहले ही अचानक उस प्लेस्कूल के ३-४ शिक्षकों ने अचानक ही नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। विद्यालय प्रबंधन के साथ मिलकर जब इस विषय में गहरी पड़ताल और इस्तीफ़ा देने वालों का एक्ज़िट इंटरव्यू किया गया तो एक चौकानें वाली जानकारी सामने आई। असल में उस शहर में एक नया प्लेस्कूल आ रहा था, जिसका प्रबंधन इस समस्या के पीछे की मूल वजह था।

    जी हाँ साथियों, असल मैं विद्यालय द्वारा एक अभिभावक के निवेदन पर जो नया नम्बर व्हाट्सअप ग्रुप में जोड़ा गया था वह उस नये प्लेस्कूल के संचालक का था। शायद उस नये प्लेस्कूल के संचालक सही क़ीमत पर सफलता पाने के स्थान पर 'किसी भी क़ीमत पर सफलता चाहने’ वाले थे और शायद इसीलिये जीवन और व्यवसायिक मूल्यों को ताक पर रख ग़लत रास्तों को चुन रहे थे। हमने तुरंत उन्हें विद्यालय के सभी ग्रुपों में से बाहर का रास्ता दिखाया और आवश्यक क़ानूनी कार्यवाही की।

    लेकिन इतना करने के बाद भी विद्यालय प्रबन्धक संतुष्ट नहीं थे। वे नये प्लेस्कूल संचालक और उस पालक को, जिसने नये प्लेस्कूल के संचालक का नम्बर विद्यालय के समूह में जुड़वाया था, को ’सही सबक़’ सिखाना चाहते थे और इसके लिये वे किसी भी स्तर तक जाने के लिये राज़ी थे। लेकिन मुझे यह उचित नहीं लग रहा था क्योंकि यह एक नकारात्मक प्रतिक्रिया थी, जो हमारी कंस्ट्रक्टिव सोच को प्रभावित कर सकती थी।

    मेरे निर्णय को आप दोस्तों, चीन की प्रचलित कहावत से भी समझ सकते हैं जिसके अनुसार, ‘बुरे आदमी से दुश्मनी भी नहीं रखनी चाहिये क्योंकि यह धीरे-धीरे आपको भी बुरा बना देती है।’ अगर आप इस बात से सहमत न हों तो मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिये, अगर कोई आपको अपशब्द कहता है तो आप उसे किस भाषा में जवाब देंगे? निश्चित तौर पर उसी की भाषा में, सही है ना? इसका अर्थ हुआ अगर हमें बुरे आदमी को जवाब देना है तो हमें उसी की भाषा का प्रयोग करना होगा। अर्थात् बुरे आदमी के साथ उसी के ढंग से लड़ना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आपको दूसरों के साथ वही व्यवहार करना पड़ेगा जो वह समझता है। अब अगर उसका व्यवहार अच्छा होगा तो आप अच्छे बनेंगे और बुरा होगा तो आप बुरे बनेंगे। इसीलिये मैंने पूर्व में कहा था, ‘बुरे आदमी की दुश्मनी आपको भी बुरा बना सकती है।’

    इस आधार पर कहा जाये साथियों, तो अगर आप किसी से लड़ाई लड़ना चाहते हैं अर्थात् दुश्मनी मोल लेना चाहते हैं तो किसी अच्छे आदमी को चुनो। अर्थात् जीवन में किसी से तुलना करनी है है, किसी से प्रतियोगिता करनी है तो अच्छे लोगों को चुनो और कोई उपाय नहीं है। चोर से लड़ोगे, तो चोर हो जाओगे। बेईमान से लड़ोगे, तो बेईमान हो जाओगे क्योंकि बेईमानी का पूरा शास्त्र तुम्हें भी सीखना पड़ेगा, नहीं तो जीत न सकोगे। यही बात व्यवसाय पर भी लागू होती है क्योंकि अगर प्रतियोगी अच्छा होगा तो वह आपको अच्छा बनायेगा याने आपके बीच में स्वस्थ प्रतियोगी भावना पैदा करेगा अन्यथा वह आपको भी नीचे गिरा देगा। एक बार विचार कर देखियेगा साथियों…

    दोस्तों, हम सब जानते हैं कि ‘संगत से रंगत बदलती है’ याने हम जिस माहौल या जिन लोगों के बीच रहते हैं उसका प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है और हम वैसे ही बनते जाते हैं। लेकिन इसके बाद भी अनजाने या अज्ञानता में हम कई बार ऐसी संगत चुन लेते हैं जो हमें काफ़ी नुक़सान पहुँचाती है। अपनी बात को मैं आपको एक क़िस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ।

    बात लगभग २ वर्ष पूर्व की है। एक दिन सुबह एक सज्जन अपने बच्चे के प्लेस्कूल में आये और रिसेप्शन पर बैठे कर्मचारी को एक नम्बर देते हुए बोले, ‘सर, मैं अक्सर बाहर रहता हूँ इसलिये कृपया इसके चाचा के नंबर को आप विद्यालय के ग्रुप में जोड़ दें, जिससे विद्यालय संबंधी सारी जानकारी समय से मिल सके।’ बच्चे के हित को मद्देनज़र रखते हुए विद्यालय प्रबंधन द्वारा तुरंत उस नंबर को ग्रुप में जोड़ दिया गया।

    कुछ दिनों तक तो सब ठीक चलता रहा। लेकिन अचानक ही विद्यालय प्रबंधन ने नोटिस किया कि पिछले कुछ दिनों में पालकों द्वारा की जाने वाली शिकायतों की संख्या बढ़ने लगी है। विद्यालय प्रबंधन इसकी वजह समझ पाता उसके पहले ही अचानक उस प्लेस्कूल के ३-४ शिक्षकों ने अचानक ही नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। विद्यालय प्रबंधन के साथ मिलकर जब इस विषय में गहरी पड़ताल और इस्तीफ़ा देने वालों का एक्ज़िट इंटरव्यू किया गया तो एक चौकानें वाली जानकारी सामने आई। असल में उस शहर में एक नया प्लेस्कूल आ रहा था, जिसका प्रबंधन इस समस्या के पीछे की मूल वजह था।

    जी हाँ साथियों, असल मैं विद्यालय द्वारा एक अभिभावक के निवेदन पर जो नया नम्बर व्हाट्सअप ग्रुप में जोड़ा गया था वह उस नये प्लेस्कूल के संचालक का था। शायद उस नये प्लेस्कूल के संचालक सही क़ीमत पर सफलता पाने के स्थान पर 'किसी भी क़ीमत पर सफलता चाहने’ वाले थे और शायद इसीलिये जीवन और व्यवसायिक मूल्यों को ताक पर रख ग़लत रास्तों को चुन रहे थे। हमने तुरंत उन्हें विद्यालय के सभी ग्रुपों में से बाहर का रास्ता दिखाया और आवश्यक क़ानूनी कार्यवाही की।

    लेकिन इतना करने के बाद भी विद्यालय प्रबन्धक संतुष्ट नहीं थे। वे नये प्लेस्कूल संचालक और उस पालक को, जिसने नये प्लेस्कूल के संचालक का नम्बर विद्यालय के समूह में जुड़वाया था, को ’सही सबक़’ सिखाना चाहते थे और इसके लिये वे किसी भी स्तर तक जाने के लिये राज़ी थे। लेकिन मुझे यह उचित नहीं लग रहा था क्योंकि यह एक नकारात्मक प्रतिक्रिया थी, जो हमारी कंस्ट्रक्टिव सोच को प्रभावित कर सकती थी।

    मेरे निर्णय को आप दोस्तों, चीन की प्रचलित कहावत से भी समझ सकते हैं जिसके अनुसार, ‘बुरे आदमी से दुश्मनी भी नहीं रखनी चाहिये क्योंकि यह धीरे-धीरे आपको भी बुरा बना देती है।’ अगर आप इस बात से सहमत न हों तो मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिये, अगर कोई आपको अपशब्द कहता है तो आप उसे किस भाषा में जवाब देंगे? निश्चित तौर पर उसी की भाषा में, सही है ना? इसका अर्थ हुआ अगर हमें बुरे आदमी को जवाब देना है तो हमें उसी की भाषा का प्रयोग करना होगा। अर्थात् बुरे आदमी के साथ उसी के ढंग से लड़ना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आपको दूसरों के साथ वही व्यवहार करना पड़ेगा जो वह समझता है। अब अगर उसका व्यवहार अच्छा होगा तो आप अच्छे बनेंगे और बुरा होगा तो आप बुरे बनेंगे। इसीलिये मैंने पूर्व में कहा था, ‘बुरे आदमी की दुश्मनी आपको भी बुरा बना सकती है।’

    इस आधार पर कहा जाये साथियों, तो अगर आप किसी से लड़ाई लड़ना चाहते हैं अर्थात् दुश्मनी मोल लेना चाहते हैं तो किसी अच्छे आदमी को चुनो। अर्थात् जीवन में किसी से तुलना करनी है है, किसी से प्रतियोगिता करनी है तो अच्छे लोगों को चुनो और कोई उपाय नहीं है। चोर से लड़ोगे, तो चोर हो जाओगे। बेईमान से लड़ोगे, तो बेईमान हो जाओगे क्योंकि बेईमानी का पूरा शास्त्र तुम्हें भी सीखना पड़ेगा, नहीं तो जीत न सकोगे। यही बात व्यवसाय पर भी लागू होती है क्योंकि अगर प्रतियोगी अच्छा होगा तो वह आपको अच्छा बनायेगा याने आपके बीच में स्वस्थ प्रतियोगी भावना पैदा करेगा अन्यथा वह आपको भी नीचे गिरा देगा। एक बार विचार कर देखियेगा साथियों…

    दोस्तों, हम सब जानते हैं कि ‘संगत से रंगत बदलती है’ याने हम जिस माहौल या जिन लोगों के बीच रहते हैं उसका प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है और हम वैसे ही बनते जाते हैं। लेकिन इसके बाद भी अनजाने या अज्ञानता में हम कई बार ऐसी संगत चुन लेते हैं जो हमें काफ़ी नुक़सान पहुँचाती है। अपनी बात को मैं आपको एक क़िस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ। बात लगभग २ वर्ष पूर्व की है। एक दिन सुबह एक सज्जन अपने बच्चे के प्लेस्कूल में आये और रिसेप्शन पर बैठे कर्मचारी को एक नम्बर देते हुए बोले, ‘सर, मैं अक्सर बाहर रहता हूँ इसलिये कृपया इसके चाचा के नंबर को आप विद्यालय के ग्रुप में जोड़ दें, जिससे विद्यालय संबंधी सारी जानकारी समय से मिल सके।’ बच्चे के हित को मद्देनज़र रखते हुए विद्यालय प्रबंधन द्वारा तुरंत उस नंबर को ग्रुप में जोड़ दिया गया। कुछ दिनों तक तो सब ठीक चलता रहा। लेकिन अचानक ही विद्यालय प्रबंधन ने नोटिस किया कि पिछले कुछ दिनों में पालकों द्वारा की जाने वाली शिकायतों की संख्या बढ़ने लगी है। विद्यालय प्रबंधन इसकी वजह समझ पाता उसके पहले ही अचानक उस प्लेस्कूल के ३-४ शिक्षकों ने अचानक ही नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। विद्यालय प्रबंधन के साथ मिलकर जब इस विषय में गहरी पड़ताल और इस्तीफ़ा देने वालों का एक्ज़िट इंटरव्यू किया गया तो एक चौकानें वाली जानकारी सामने आई। असल में उस शहर में एक नया प्लेस्कूल आ रहा था, जिसका प्रबंधन इस समस्या के पीछे की मूल वजह था। जी हाँ साथियों, असल मैं विद्यालय द्वारा एक अभिभावक के निवेदन पर जो नया नम्बर व्हाट्सअप ग्रुप में जोड़ा गया था वह उस नये प्लेस्कूल के संचालक का था। शायद उस नये प्लेस्कूल के संचालक सही क़ीमत पर सफलता पाने के स्थान पर 'किसी भी क़ीमत पर सफलता चाहने’ वाले थे और शायद इसीलिये जीवन और व्यवसायिक मूल्यों को ताक पर रख ग़लत रास्तों को चुन रहे थे। हमने तुरंत उन्हें विद्यालय के सभी ग्रुपों में से बाहर का रास्ता दिखाया और आवश्यक क़ानूनी कार्यवाही की। लेकिन इतना करने के बाद भी विद्यालय प्रबन्धक संतुष्ट नहीं थे। वे नये प्लेस्कूल संचालक और उस पालक को, जिसने नये प्लेस्कूल के संचालक का नम्बर विद्यालय के समूह में जुड़वाया था, को ’सही सबक़’ सिखाना चाहते थे और इसके लिये वे किसी भी स्तर तक जाने के लिये राज़ी थे। लेकिन मुझे यह उचित नहीं लग रहा था क्योंकि यह एक नकारात्मक प्रतिक्रिया थी, जो हमारी कंस्ट्रक्टिव सोच को प्रभावित कर सकती थी। मेरे निर्णय को आप दोस्तों, चीन की प्रचलित कहावत से भी समझ सकते हैं जिसके अनुसार, ‘बुरे आदमी से दुश्मनी भी नहीं रखनी चाहिये क्योंकि यह धीरे-धीरे आपको भी बुरा बना देती है।’ अगर आप इस बात से सहमत न हों तो मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिये, अगर कोई आपको अपशब्द कहता है तो आप उसे किस भाषा में जवाब देंगे? निश्चित तौर पर उसी की भाषा में, सही है ना? इसका अर्थ हुआ अगर हमें बुरे आदमी को जवाब देना है तो हमें उसी की भाषा का प्रयोग करना होगा। अर्थात् बुरे आदमी के साथ उसी के ढंग से लड़ना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आपको दूसरों के साथ वही व्यवहार करना पड़ेगा जो वह समझता है। अब अगर उसका व्यवहार अच्छा होगा तो आप अच्छे बनेंगे और बुरा होगा तो आप बुरे बनेंगे। इसीलिये मैंने पूर्व में कहा था, ‘बुरे आदमी की दुश्मनी आपको भी बुरा बना सकती है।’ इस आधार पर कहा जाये साथियों, तो अगर आप किसी से लड़ाई लड़ना चाहते हैं अर्थात् दुश्मनी मोल लेना चाहते हैं तो किसी अच्छे आदमी को चुनो। अर्थात् जीवन में किसी से तुलना करनी है है, किसी से प्रतियोगिता करनी है तो अच्छे लोगों को चुनो और कोई उपाय नहीं है। चोर से लड़ोगे, तो चोर हो जाओगे। बेईमान से लड़ोगे, तो बेईमान हो जाओगे क्योंकि बेईमानी का पूरा शास्त्र तुम्हें भी सीखना पड़ेगा, नहीं तो जीत न सकोगे। यही बात व्यवसाय पर भी लागू होती है क्योंकि अगर प्रतियोगी अच्छा होगा तो वह आपको अच्छा बनायेगा याने आपके बीच में स्वस्थ प्रतियोगी भावना पैदा करेगा अन्यथा वह आपको भी नीचे गिरा देगा। एक बार विचार कर देखियेगा साथियों… दोस्तों, हम सब जानते हैं कि ‘संगत से रंगत बदलती है’ याने हम जिस माहौल या जिन लोगों के बीच रहते हैं उसका प्रभाव हमारे ऊपर पड़ता है और हम वैसे ही बनते जाते हैं। लेकिन इसके बाद भी अनजाने या अज्ञानता में हम कई बार ऐसी संगत चुन लेते हैं जो हमें काफ़ी नुक़सान पहुँचाती है। अपनी बात को मैं आपको एक क़िस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ। बात लगभग २ वर्ष पूर्व की है। एक दिन सुबह एक सज्जन अपने बच्चे के प्लेस्कूल में आये और रिसेप्शन पर बैठे कर्मचारी को एक नम्बर देते हुए बोले, ‘सर, मैं अक्सर बाहर रहता हूँ इसलिये कृपया इसके चाचा के नंबर को आप विद्यालय के ग्रुप में जोड़ दें, जिससे विद्यालय संबंधी सारी जानकारी समय से मिल सके।’ बच्चे के हित को मद्देनज़र रखते हुए विद्यालय प्रबंधन द्वारा तुरंत उस नंबर को ग्रुप में जोड़ दिया गया। कुछ दिनों तक तो सब ठीक चलता रहा। लेकिन अचानक ही विद्यालय प्रबंधन ने नोटिस किया कि पिछले कुछ दिनों में पालकों द्वारा की जाने वाली शिकायतों की संख्या बढ़ने लगी है। विद्यालय प्रबंधन इसकी वजह समझ पाता उसके पहले ही अचानक उस प्लेस्कूल के ३-४ शिक्षकों ने अचानक ही नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। विद्यालय प्रबंधन के साथ मिलकर जब इस विषय में गहरी पड़ताल और इस्तीफ़ा देने वालों का एक्ज़िट इंटरव्यू किया गया तो एक चौकानें वाली जानकारी सामने आई। असल में उस शहर में एक नया प्लेस्कूल आ रहा था, जिसका प्रबंधन इस समस्या के पीछे की मूल वजह था। जी हाँ साथियों, असल मैं विद्यालय द्वारा एक अभिभावक के निवेदन पर जो नया नम्बर व्हाट्सअप ग्रुप में जोड़ा गया था वह उस नये प्लेस्कूल के संचालक का था। शायद उस नये प्लेस्कूल के संचालक सही क़ीमत पर सफलता पाने के स्थान पर 'किसी भी क़ीमत पर सफलता चाहने’ वाले थे और शायद इसीलिये जीवन और व्यवसायिक मूल्यों को ताक पर रख ग़लत रास्तों को चुन रहे थे। हमने तुरंत उन्हें विद्यालय के सभी ग्रुपों में से बाहर का रास्ता दिखाया और आवश्यक क़ानूनी कार्यवाही की। लेकिन इतना करने के बाद भी विद्यालय प्रबन्धक संतुष्ट नहीं थे। वे नये प्लेस्कूल संचालक और उस पालक को, जिसने नये प्लेस्कूल के संचालक का नम्बर विद्यालय के समूह में जुड़वाया था, को ’सही सबक़’ सिखाना चाहते थे और इसके लिये वे किसी भी स्तर तक जाने के लिये राज़ी थे। लेकिन मुझे यह उचित नहीं लग रहा था क्योंकि यह एक नकारात्मक प्रतिक्रिया थी, जो हमारी कंस्ट्रक्टिव सोच को प्रभावित कर सकती थी। मेरे निर्णय को आप दोस्तों, चीन की प्रचलित कहावत से भी समझ सकते हैं जिसके अनुसार, ‘बुरे आदमी से दुश्मनी भी नहीं रखनी चाहिये क्योंकि यह धीरे-धीरे आपको भी बुरा बना देती है।’ अगर आप इस बात से सहमत न हों तो मेरे एक प्रश्न का उत्तर दीजिये, अगर कोई आपको अपशब्द कहता है तो आप उसे किस भाषा में जवाब देंगे? निश्चित तौर पर उसी की भाषा में, सही है ना? इसका अर्थ हुआ अगर हमें बुरे आदमी को जवाब देना है तो हमें उसी की भाषा का प्रयोग करना होगा। अर्थात् बुरे आदमी के साथ उसी के ढंग से लड़ना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आपको दूसरों के साथ वही व्यवहार करना पड़ेगा जो वह समझता है। अब अगर उसका व्यवहार अच्छा होगा तो आप अच्छे बनेंगे और बुरा होगा तो आप बुरे बनेंगे। इसीलिये मैंने पूर्व में कहा था, ‘बुरे आदमी की दुश्मनी आपको भी बुरा बना सकती है।’ इस आधार पर कहा जाये साथियों, तो अगर आप किसी से लड़ाई लड़ना चाहते हैं अर्थात् दुश्मनी मोल लेना चाहते हैं तो किसी अच्छे आदमी को चुनो। अर्थात् जीवन में किसी से तुलना करनी है है, किसी से प्रतियोगिता करनी है तो अच्छे लोगों को चुनो और कोई उपाय नहीं है। चोर से लड़ोगे, तो चोर हो जाओगे। बेईमान से लड़ोगे, तो बेईमान हो जाओगे क्योंकि बेईमानी का पूरा शास्त्र तुम्हें भी सीखना पड़ेगा, नहीं तो जीत न सकोगे। यही बात व्यवसाय पर भी लागू होती है क्योंकि अगर प्रतियोगी अच्छा होगा तो वह आपको अच्छा बनायेगा याने आपके बीच में स्वस्थ प्रतियोगी भावना पैदा करेगा अन्यथा वह आपको भी नीचे गिरा देगा। एक बार विचार कर देखियेगा साथियों…
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