दोस्तों, अक्सर अभिमान को स्वाभिमान मान लेना एक ऐसी गलती है जो ज़्यादातर लोग अनजाने में कर जाते हैं। हो सकता है अब आप मेरी इस बात से भ्रमित हो रहे होंगे कि ‘अभिमान’ नकारात्मक कैसे हो गया? चलिये अपनी बात को मैं आपको एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ। बात आज से कुछ वर्ष पूर्व की है, इंदौर के समीप एक विद्यालय में एक कर्मचारी को छोटी सी गलती के कारण प्राचार्य द्वारा नौकरी से निकाल दिया गया। कुछ दिनों बाद निकाले गये व्यक्ति ने विद्यालय प्रबंधन समिति से संपर्क करा और उन्हें पूरी स्थिति से अवगत कराया। जिसके पश्चात समिति द्वारा उनकी नौकरी को बहाल कर दिया गया।

उक्त निर्णय जब प्राचार्य को पता चला तो उन्होंने इसे अपनी तौहीन मान लिया और उस दिन के पश्चात वे अपने पद का लाभ उठाकर उस छोटे से कर्मचारी को बार-बार परेशान और प्रताड़ित करने लगे। संस्था के प्रति अपनी वफ़ादारी और मजबूरी के कारण वह कर्मचारी बिना विरोध किए सब-कुछ सहने लगा। हालाँकि विद्यालय में मौजूद अन्य कर्मचारी उसकी इस स्थिति को बहुत अच्छे से समझ रहे थे। लेकिन उनमें से कोई भी प्राचार्य के ख़िलाफ़ जाकर उस कर्मचारी का पक्ष लेने के लिये राज़ी नहीं था, सिवाए एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के। उसके सिवा हर कोई सिर्फ़ यह सोच रहा था, ‘कौन फ़ालतू के पंगे में पड़े।’

अब अगर आप पूरी घटना को विश्लेषणात्मक नज़रिये से देखेंगे तो पायेंगे कि प्राचार्य उक्त कर्मचारी को नीचा दिखाने का प्रयास कर यह जताना चाह रहे थे कि ‘मेरे ख़िलाफ़ जाओगे तो बच नहीं पाओगे।’ या दूसरे शब्दों में कहूँ तो तालाब में रहकर मगरमच्छ से बैर लेकर बचना संभव नहीं है। इसके विपरीत यह सब जानने के बाद भी रिस्क लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी सच्चाई का साथ दे रहा था। प्राचार्य और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के नज़रिये का अंतर ही साथियों अभिमान और स्वाभिमान का अंतर है।

चलिये इसे थोड़ा और विस्तार से समझ लेते हैं। प्राचार्य का नज़रिया अपनी बात पर अड़े रहने और दूसरे को नीचा दिखाने याने ख़ुद को सही सिद्ध करने वाला था और मेरी नज़र में इन बातों का होना, स्वाभिमानी होना नहीं होता है। स्वाभिमानी तो वह होता है जो सामने वाले के पद, हैसियत, जात, रंग-रूप आदि किसी भी बात पर ध्यान दिये बिना अथवा किसी के भी दबाव में आये बिना सामने वाले को यथायोग्य सम्मान देते हुए, सत्य पर अडिग रहे।

इसके विपरीत दोस्तों प्राचार्य का व्यवहार अपने अहंकार को बढ़ावा देने वाला था, जो अभिमानी होने की निशानी है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो, जो मैं कह रहा हूँ वही सही या सत्य है, का भाव रखना अभिमानी होने का लक्षण है। याद रखियेगा साथियों, स्वाभिमानी व्यक्ति हर हाल में सत्य के साथ खड़ा रहता है। वह सत्य की रक्षा करने के लिये स्वयं कष्ट सहन करने को तैयार रहता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो स्वाभिमानी व्यक्ति ना तो ख़ुद किसी को कष्ट देता है और ना ही कष्ट देने वाले का साथ देता है। वह तो दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा करते हुए स्वयं कष्ट सहता है।

इस आधार पर कहा जाये तो मैं जो कह रहा हूँ वही सत्य है, यह अभिमानी का लक्षण है और जो सत्य है, वह मैं स्वीकार लूँगा, यह स्वाभिमानी होने का लक्षण है। याद रखियेगा साथियों, अपने आत्म गौरव की प्रतिष्ठा जरुर बनी रहनी चाहिए मगर किसी को अकारण, अनावश्यक झुकाकर, गिराकर अथवा रुलाकर नहीं।

दोस्तों, अक्सर अभिमान को स्वाभिमान मान लेना एक ऐसी गलती है जो ज़्यादातर लोग अनजाने में कर जाते हैं। हो सकता है अब आप मेरी इस बात से भ्रमित हो रहे होंगे कि ‘अभिमान’ नकारात्मक कैसे हो गया? चलिये अपनी बात को मैं आपको एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ। बात आज से कुछ वर्ष पूर्व की है, इंदौर के समीप एक विद्यालय में एक कर्मचारी को छोटी सी गलती के कारण प्राचार्य द्वारा नौकरी से निकाल दिया गया। कुछ दिनों बाद निकाले गये व्यक्ति ने विद्यालय प्रबंधन समिति से संपर्क करा और उन्हें पूरी स्थिति से अवगत कराया। जिसके पश्चात समिति द्वारा उनकी नौकरी को बहाल कर दिया गया। उक्त निर्णय जब प्राचार्य को पता चला तो उन्होंने इसे अपनी तौहीन मान लिया और उस दिन के पश्चात वे अपने पद का लाभ उठाकर उस छोटे से कर्मचारी को बार-बार परेशान और प्रताड़ित करने लगे। संस्था के प्रति अपनी वफ़ादारी और मजबूरी के कारण वह कर्मचारी बिना विरोध किए सब-कुछ सहने लगा। हालाँकि विद्यालय में मौजूद अन्य कर्मचारी उसकी इस स्थिति को बहुत अच्छे से समझ रहे थे। लेकिन उनमें से कोई भी प्राचार्य के ख़िलाफ़ जाकर उस कर्मचारी का पक्ष लेने के लिये राज़ी नहीं था, सिवाए एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के। उसके सिवा हर कोई सिर्फ़ यह सोच रहा था, ‘कौन फ़ालतू के पंगे में पड़े।’ अब अगर आप पूरी घटना को विश्लेषणात्मक नज़रिये से देखेंगे तो पायेंगे कि प्राचार्य उक्त कर्मचारी को नीचा दिखाने का प्रयास कर यह जताना चाह रहे थे कि ‘मेरे ख़िलाफ़ जाओगे तो बच नहीं पाओगे।’ या दूसरे शब्दों में कहूँ तो तालाब में रहकर मगरमच्छ से बैर लेकर बचना संभव नहीं है। इसके विपरीत यह सब जानने के बाद भी रिस्क लेकर चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी सच्चाई का साथ दे रहा था। प्राचार्य और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के नज़रिये का अंतर ही साथियों अभिमान और स्वाभिमान का अंतर है। चलिये इसे थोड़ा और विस्तार से समझ लेते हैं। प्राचार्य का नज़रिया अपनी बात पर अड़े रहने और दूसरे को नीचा दिखाने याने ख़ुद को सही सिद्ध करने वाला था और मेरी नज़र में इन बातों का होना, स्वाभिमानी होना नहीं होता है। स्वाभिमानी तो वह होता है जो सामने वाले के पद, हैसियत, जात, रंग-रूप आदि किसी भी बात पर ध्यान दिये बिना अथवा किसी के भी दबाव में आये बिना सामने वाले को यथायोग्य सम्मान देते हुए, सत्य पर अडिग रहे। इसके विपरीत दोस्तों प्राचार्य का व्यवहार अपने अहंकार को बढ़ावा देने वाला था, जो अभिमानी होने की निशानी है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो, जो मैं कह रहा हूँ वही सही या सत्य है, का भाव रखना अभिमानी होने का लक्षण है। याद रखियेगा साथियों, स्वाभिमानी व्यक्ति हर हाल में सत्य के साथ खड़ा रहता है। वह सत्य की रक्षा करने के लिये स्वयं कष्ट सहन करने को तैयार रहता है। दूसरे शब्दों में कहा जाये तो स्वाभिमानी व्यक्ति ना तो ख़ुद किसी को कष्ट देता है और ना ही कष्ट देने वाले का साथ देता है। वह तो दूसरों के स्वाभिमान की रक्षा करते हुए स्वयं कष्ट सहता है। इस आधार पर कहा जाये तो मैं जो कह रहा हूँ वही सत्य है, यह अभिमानी का लक्षण है और जो सत्य है, वह मैं स्वीकार लूँगा, यह स्वाभिमानी होने का लक्षण है। याद रखियेगा साथियों, अपने आत्म गौरव की प्रतिष्ठा जरुर बनी रहनी चाहिए मगर किसी को अकारण, अनावश्यक झुकाकर, गिराकर अथवा रुलाकर नहीं।
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