दोस्तों, आज कहीं ना कहीं हम सभी में ‘मैं’ याने अहम् का भाव इतना अधिक बलवती होता जा रहा है की हम ‘प्रेम’ को भूलते जा रहे हैं। जबकि मेरा मानना है कि ‘प्रेम’, ‘मैं’ से कई गुणा बलवान है। लेकिन आजकल परिवार और समाज में हम इसका बिलकुल विपरीत माहौल देखते हैं। अपनी बात को मैं आपको एक घटना के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ।

हाल ही में कन्सल्टेंसी के कार्य हेतु एक संस्था में जाने का मौक़ा मिला। शुरुआती दौर की बातचीत के बाद जब हमने पिछले माह की गई गतिविधियों पर चर्चा करना शुरू की तो एक डायरेक्टर कमी निकालने पर बहुत ज़्यादा नाराज़ हो गये। नाराज़गी के दौरान उन्होंने शब्दों की सीमा को कई बार पार किया, जिसके कारण वहाँ का माहौल पूरी तरह विषाक्त हो गया और मीटिंग को बिना निर्णय के ही बीच में समाप्त करना पड़ा। वैसे ऐसा वहाँ पहली बार नहीं हुआ था, उक्त डायरेक्टर की इस आदत से बाक़ी सभी सदस्यों के मन में काफ़ी नाराज़गी थी।

वैसे यह स्थिति सिर्फ़ उस संस्था की नहीं थी अपितु आजकल आपको ज्यादातर घरों में भी यही माहौल अर्थात् ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का वातावरण देखने को मिलता है। मेरी नज़र में इसकी मुख्य वजह आपसी प्रेम का ना होना है। उदाहरण के लिये मान लीजिये आप किसी से प्रेम करते हैं और वह आपसे ऊँची आवाज़ में बात करता है। अब आप बताइये ऐसी स्थिति में आप क्या करेंगे? निश्चित तौर पर आप इसे नज़रंदाज़ करेंगे क्योंकि आप सामने वाले से प्रेम करते हैं। चलिये अब हम दूसरी स्थिति पर विचार करते हैं, अगर आपको सामने वाले से प्रेम नहीं होता तो क्या आप उसकी बातें सुनते? निश्चित तौर पर नहीं। दोस्तों, इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ आपकी प्रतिक्रिया आपसी प्रेम पर निर्भर थी।

लेकिन, अगर आपका लक्ष्य जीवन को सरल बनाना है तो मेरा एक सुझाव है । प्रेम को अपने जीवन का अंग बना लें और जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है, उसे तेज आवाज में बोलकर और चिल्लाकर करवाना बंद कर दें। इसके साथ ही जो काम केवल गुस्सा दिखाकर हो सकता है, उसके लिए वास्तव में गुस्सा करना छोड़ दें। मेरी नज़र में अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये यह एक बुद्धिमता पूर्ण निर्णय होगा।

वैसे भी साथियों, अपनी बात मनवाने के लिए अपने अधिकार या बल का प्रयोग करना पूरी तरह अक्षमता का लक्षण होता है। हक़ीकत में प्रेम ही एक मात्र ऐसा हथियार है, जिससे सारी दुनिया को जीता जा सकता है। इसीलिये दोस्तों प्रेम से किसी के ऊपर विजय प्राप्त करने को ही सच्ची विजय माना गया है। याद रखियेगा, आज प्रत्येक घर या समाज में ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का जो वातावरण है उसका एक ही कारण है और वह है प्रेम का अभाव। जिस तरह आग को आग नहीं, पानी बुझाता है। ठीक उसी तरह ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति को इनके नहीं प्रेम के जरिये मिटाया जा सकता है। जी हाँ, प्रेम से दुनिया को तो क्या दुनिया बनाने वाले तक को जीता जा सकता है और इंसान तो क्या, पशु-पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते हैं। तो आइये साथियों आज से प्रेम बाँटते हैं और आने वाले समय में अपने जीवन को इसकी सुगंध से सुगंधित बनाते हैं।
दोस्तों, आज कहीं ना कहीं हम सभी में ‘मैं’ याने अहम् का भाव इतना अधिक बलवती होता जा रहा है की हम ‘प्रेम’ को भूलते जा रहे हैं। जबकि मेरा मानना है कि ‘प्रेम’, ‘मैं’ से कई गुणा बलवान है। लेकिन आजकल परिवार और समाज में हम इसका बिलकुल विपरीत माहौल देखते हैं। अपनी बात को मैं आपको एक घटना के माध्यम से समझाने का प्रयास करता हूँ। हाल ही में कन्सल्टेंसी के कार्य हेतु एक संस्था में जाने का मौक़ा मिला। शुरुआती दौर की बातचीत के बाद जब हमने पिछले माह की गई गतिविधियों पर चर्चा करना शुरू की तो एक डायरेक्टर कमी निकालने पर बहुत ज़्यादा नाराज़ हो गये। नाराज़गी के दौरान उन्होंने शब्दों की सीमा को कई बार पार किया, जिसके कारण वहाँ का माहौल पूरी तरह विषाक्त हो गया और मीटिंग को बिना निर्णय के ही बीच में समाप्त करना पड़ा। वैसे ऐसा वहाँ पहली बार नहीं हुआ था, उक्त डायरेक्टर की इस आदत से बाक़ी सभी सदस्यों के मन में काफ़ी नाराज़गी थी। वैसे यह स्थिति सिर्फ़ उस संस्था की नहीं थी अपितु आजकल आपको ज्यादातर घरों में भी यही माहौल अर्थात् ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का वातावरण देखने को मिलता है। मेरी नज़र में इसकी मुख्य वजह आपसी प्रेम का ना होना है। उदाहरण के लिये मान लीजिये आप किसी से प्रेम करते हैं और वह आपसे ऊँची आवाज़ में बात करता है। अब आप बताइये ऐसी स्थिति में आप क्या करेंगे? निश्चित तौर पर आप इसे नज़रंदाज़ करेंगे क्योंकि आप सामने वाले से प्रेम करते हैं। चलिये अब हम दूसरी स्थिति पर विचार करते हैं, अगर आपको सामने वाले से प्रेम नहीं होता तो क्या आप उसकी बातें सुनते? निश्चित तौर पर नहीं। दोस्तों, इसका सीधा-सीधा अर्थ हुआ आपकी प्रतिक्रिया आपसी प्रेम पर निर्भर थी। लेकिन, अगर आपका लक्ष्य जीवन को सरल बनाना है तो मेरा एक सुझाव है । प्रेम को अपने जीवन का अंग बना लें और जो काम धीरे बोलकर, मुस्कुराकर और प्रेम से बोलकर कराया जा सकता है, उसे तेज आवाज में बोलकर और चिल्लाकर करवाना बंद कर दें। इसके साथ ही जो काम केवल गुस्सा दिखाकर हो सकता है, उसके लिए वास्तव में गुस्सा करना छोड़ दें। मेरी नज़र में अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये यह एक बुद्धिमता पूर्ण निर्णय होगा। वैसे भी साथियों, अपनी बात मनवाने के लिए अपने अधिकार या बल का प्रयोग करना पूरी तरह अक्षमता का लक्षण होता है। हक़ीकत में प्रेम ही एक मात्र ऐसा हथियार है, जिससे सारी दुनिया को जीता जा सकता है। इसीलिये दोस्तों प्रेम से किसी के ऊपर विजय प्राप्त करने को ही सच्ची विजय माना गया है। याद रखियेगा, आज प्रत्येक घर या समाज में ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति का जो वातावरण है उसका एक ही कारण है और वह है प्रेम का अभाव। जिस तरह आग को आग नहीं, पानी बुझाता है। ठीक उसी तरह ईर्ष्या, संघर्ष, दुःख और अशांति को इनके नहीं प्रेम के जरिये मिटाया जा सकता है। जी हाँ, प्रेम से दुनिया को तो क्या दुनिया बनाने वाले तक को जीता जा सकता है और इंसान तो क्या, पशु-पक्षी भी प्रेम की भाषा समझते हैं। तो आइये साथियों आज से प्रेम बाँटते हैं और आने वाले समय में अपने जीवन को इसकी सुगंध से सुगंधित बनाते हैं।
0 Comments 0 Shares 935 Views