आइये दोस्तों आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। बात कई साल पुरानी है, रामपुर के धर्मपरायण राजा ने अपनी प्रजा के मन में धार्मिक आस्था जगाने के उद्देश्य से रामकथा करवाने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने नगर के सभी ब्राह्मणों को आमंत्रित किया और सबको रामायण की एक-एक प्रति भेंट करते हुए निवेदन किया कि कल से सभी मंदिर प्रांगण में रामकथा का वाचन करेंगे।

अगले दिन तय समय पर मंदिर प्रांगण में सभी ब्राह्मण पहुँच गये। इनमें एक ब्राह्मण ऐसा भी था जो पढ़ना नहीं जानता था। उसने सबसे पीछे बैठने का निर्णय यह सोचते हुए लिया कि जब पास वाला पन्ना पलटेगा तब मैं भी पन्ना पलट लूँगा। रामायण पाठ शुरू होने के बाद जब काफ़ी देर तक पड़ोसी ने पन्ना नहीं पलटा तो इस ब्राह्मण को चिंता हो गई कि अगर महाराज ने कुछ पूछ लिया तो मैं क्या कहूँगा? कुछ देर पश्चात सभी ब्राह्मणों का सम्मान करने के लिये महाराज प्रांगण में पहुँचे। उन्हें ऐसा करते देख अनपढ़ ब्राह्मण डर गया और रट लगाने लगा कि ‘अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा… अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा…!’ उसे ऐसा करते देख पास बैठे ब्राह्मण ने कहना शुरू कर दिया कि ‘तेरी गति सो मेरी गति… तेरी गति सो मेरी गति…!’ इतने में ही वहीं बैठे तीसरे ब्राह्मण ने दोहराना शुरू कर दिया कि ‘ये पोल कब तक चलेगी… ये पोल कब तक चलेगी…!’ इन तीनों को ऐसा करते देख पास ही बैठे चौथे ब्राह्मण ने मुँह नीचे कर मुस्कुराते हुए रटना शुरू कर दिया, ‘जब तक चलता है, चलने दे… जब तक चलता है, चलने दे…!’

कुछ समय पश्चात् जैसे ही राजा इनके समीप पहुँचे तो इन चारों की लयबद्ध बात को सुन चौंक गये। कुछ पलों तक अपने दिमाग़ पर ज़ोर देने के बाद वे बोले, ‘यह चारों पंडित क्या गा रहे हैं हमें तो समझ नहीं आ रहा है।' पहला कह रहा है, ‘अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा…’ दूसरा कह रहा है, ‘तेरी गति सो मेरी गति…’ तीसरा दोहरा रहा है, ‘ये पोल कब तक चलेगी…’ और चौथा तो रट लगाये बैठा है, ‘जब तक चलता है, चलने दे…’ इसके बाद महाराज कुछ पल को शांत हुए फिर बोले, ‘रामायण में तो हमने यह वाक्य कभी नहीं सुने !’

महाराज की बात सुन बुद्धिमान कथावाचक ब्राह्मणों का बचाव करते हुए बोले, ‘महाराज, चारों ब्राह्मण रामायण की ही व्याख्या कर रहे हैं। पहला ब्राह्मण अयोध्याकाण्ड की व्याख्या कर रहा है। जब सुमंत श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी को वन में छोड़ कर घर लौट रहे होते हैं तब वे चिंतित होते हुए कहते हैं, ‘राजा, पूछेंगे तो मैं क्या कहूँगा?’ और दूसरे ब्राह्मण जो दोहरा रहे थे कि ‘तेरी गति सो मेरी गति’ वे बड़े ज्ञानी हैं। किष्किन्धाकाण्ड में जब हनुमान जी, श्री राम और लक्ष्मण को अपने कंधों पर बैठा कर सुग्रीव के पास ले गये थे, तब भगवान श्री राम जी ने सुग्रीव से कहा था, ‘तेरी गति सो मेरी गति। तेरी पत्नी को बाली ने रख लिया और मेरी पत्नी का हरण रावण ने कर लिया।’

एक पल शांत रहने के बाद कथावाचक बड़ी विनम्रता के साथ बोले, ‘महाराज, तीसरे ब्राह्मण लंकाकांड की एक घटना के बारे में बता रहे हैं। अंगद जब रावण की सभा में अपना पैर जमाए खड़ा था, तब मेघनाथ ने अपने पिता रावण से कहा था, ‘पिताश्री, यह पोल कब तक चलेगी? पहले एक वानर आया और हमारी पूरी लंका में आग लगा कर चला गया और अब यह दूसरा कह रहा है की कोई मेरे पैर को हिला दे तो भगवान श्री राम बिना युद्ध करे ही यहाँ से लौट जाएँगे।’ और चौथे ब्राह्मण जो इन सबमें सबसे विद्वान हैं, वे मंदोदरी और रावण के संवाद के बारे में बात कर रहे हैं। मंदोदरी ने अपने पति रावण से कई बार कहा था, ‘स्वामी! आप जिद्द छोड़, सीता जी को आदर सहित राम जी को सौंप दो अन्यथा अनर्थ हो जायगा।’ तब रावण ने जवाब देते हुए मंदोदरी से कहा था कि जब तक चलता है चलने दे। मेरे तो दोनों हाथ में लड्डू हैं, अगर में राम के हाथों मारा गया तो मेरी मुक्ति हो जाएगी। इस अधम शरीर से भजन-वजन तो कुछ होता नहीं और अगर मैं युद्द जीत गया तो त्रिलोक में भी मेरी जय-जयकार होने लगेगी।’ चारों ब्राह्मणों के द्वारा कही बात की व्याख्या कथावाचक से सुन राजा बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने कथावाचक सहित उन चारों ब्राह्मणों को स्वर्ण मुद्राओं के साथ कई बहुमूल्य चीजें दान स्वरूप देकर विदा किया।

दोस्तों वैसे तो इस कहानी का संदेश बड़ा स्पष्ट है और निश्चित तौर पर आप उसे समझ ही गये होंगे। लेकिन फिर भी हम संक्षेप में उस पर चर्चा कर लेते हैं। अगर आप चारों ब्राह्मणों द्वारा कही गई बात पर गौर करेंगे तो पाएँगे कि वास्तव में इनका रामायण से कोई लेना-देना नहीं था और वे पढ़ना-लिखना ना आने के कारण इन बातों को डर और घबराहट की वजह से दोहरा रहे थे। आप स्वयं सोच कर देखिये अगर महाराज को यह बात पता लग जाती तो उन ब्राह्मणों का क्या हश्र होता? लेकिन ऐसा कुछ होता उसके पहले ही विद्वान् कथावाचक द्वारा उसकी इतनी सुंदर व्याख्या की गई कि वहाँ राजा सहित सभी मौजूद लोग उन्हें विद्वान् मानने लगे और अंत में उन्हें ढेर सारा दान मिला। इसीलिये दोस्तों हमारे यहाँ संगत या साथ को इतना महत्वपूर्ण बताया जाता है। तो आइये साथियों आज से अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये अपनी संगत को बेहतर बनाते हैं।
आइये दोस्तों आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। बात कई साल पुरानी है, रामपुर के धर्मपरायण राजा ने अपनी प्रजा के मन में धार्मिक आस्था जगाने के उद्देश्य से रामकथा करवाने का निर्णय लिया। उन्होंने अपने नगर के सभी ब्राह्मणों को आमंत्रित किया और सबको रामायण की एक-एक प्रति भेंट करते हुए निवेदन किया कि कल से सभी मंदिर प्रांगण में रामकथा का वाचन करेंगे। अगले दिन तय समय पर मंदिर प्रांगण में सभी ब्राह्मण पहुँच गये। इनमें एक ब्राह्मण ऐसा भी था जो पढ़ना नहीं जानता था। उसने सबसे पीछे बैठने का निर्णय यह सोचते हुए लिया कि जब पास वाला पन्ना पलटेगा तब मैं भी पन्ना पलट लूँगा। रामायण पाठ शुरू होने के बाद जब काफ़ी देर तक पड़ोसी ने पन्ना नहीं पलटा तो इस ब्राह्मण को चिंता हो गई कि अगर महाराज ने कुछ पूछ लिया तो मैं क्या कहूँगा? कुछ देर पश्चात सभी ब्राह्मणों का सम्मान करने के लिये महाराज प्रांगण में पहुँचे। उन्हें ऐसा करते देख अनपढ़ ब्राह्मण डर गया और रट लगाने लगा कि ‘अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा… अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा…!’ उसे ऐसा करते देख पास बैठे ब्राह्मण ने कहना शुरू कर दिया कि ‘तेरी गति सो मेरी गति… तेरी गति सो मेरी गति…!’ इतने में ही वहीं बैठे तीसरे ब्राह्मण ने दोहराना शुरू कर दिया कि ‘ये पोल कब तक चलेगी… ये पोल कब तक चलेगी…!’ इन तीनों को ऐसा करते देख पास ही बैठे चौथे ब्राह्मण ने मुँह नीचे कर मुस्कुराते हुए रटना शुरू कर दिया, ‘जब तक चलता है, चलने दे… जब तक चलता है, चलने दे…!’ कुछ समय पश्चात् जैसे ही राजा इनके समीप पहुँचे तो इन चारों की लयबद्ध बात को सुन चौंक गये। कुछ पलों तक अपने दिमाग़ पर ज़ोर देने के बाद वे बोले, ‘यह चारों पंडित क्या गा रहे हैं हमें तो समझ नहीं आ रहा है।' पहला कह रहा है, ‘अब राजा पूछेगा तो क्या कहूँगा…’ दूसरा कह रहा है, ‘तेरी गति सो मेरी गति…’ तीसरा दोहरा रहा है, ‘ये पोल कब तक चलेगी…’ और चौथा तो रट लगाये बैठा है, ‘जब तक चलता है, चलने दे…’ इसके बाद महाराज कुछ पल को शांत हुए फिर बोले, ‘रामायण में तो हमने यह वाक्य कभी नहीं सुने !’ महाराज की बात सुन बुद्धिमान कथावाचक ब्राह्मणों का बचाव करते हुए बोले, ‘महाराज, चारों ब्राह्मण रामायण की ही व्याख्या कर रहे हैं। पहला ब्राह्मण अयोध्याकाण्ड की व्याख्या कर रहा है। जब सुमंत श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी को वन में छोड़ कर घर लौट रहे होते हैं तब वे चिंतित होते हुए कहते हैं, ‘राजा, पूछेंगे तो मैं क्या कहूँगा?’ और दूसरे ब्राह्मण जो दोहरा रहे थे कि ‘तेरी गति सो मेरी गति’ वे बड़े ज्ञानी हैं। किष्किन्धाकाण्ड में जब हनुमान जी, श्री राम और लक्ष्मण को अपने कंधों पर बैठा कर सुग्रीव के पास ले गये थे, तब भगवान श्री राम जी ने सुग्रीव से कहा था, ‘तेरी गति सो मेरी गति। तेरी पत्नी को बाली ने रख लिया और मेरी पत्नी का हरण रावण ने कर लिया।’ एक पल शांत रहने के बाद कथावाचक बड़ी विनम्रता के साथ बोले, ‘महाराज, तीसरे ब्राह्मण लंकाकांड की एक घटना के बारे में बता रहे हैं। अंगद जब रावण की सभा में अपना पैर जमाए खड़ा था, तब मेघनाथ ने अपने पिता रावण से कहा था, ‘पिताश्री, यह पोल कब तक चलेगी? पहले एक वानर आया और हमारी पूरी लंका में आग लगा कर चला गया और अब यह दूसरा कह रहा है की कोई मेरे पैर को हिला दे तो भगवान श्री राम बिना युद्ध करे ही यहाँ से लौट जाएँगे।’ और चौथे ब्राह्मण जो इन सबमें सबसे विद्वान हैं, वे मंदोदरी और रावण के संवाद के बारे में बात कर रहे हैं। मंदोदरी ने अपने पति रावण से कई बार कहा था, ‘स्वामी! आप जिद्द छोड़, सीता जी को आदर सहित राम जी को सौंप दो अन्यथा अनर्थ हो जायगा।’ तब रावण ने जवाब देते हुए मंदोदरी से कहा था कि जब तक चलता है चलने दे। मेरे तो दोनों हाथ में लड्डू हैं, अगर में राम के हाथों मारा गया तो मेरी मुक्ति हो जाएगी। इस अधम शरीर से भजन-वजन तो कुछ होता नहीं और अगर मैं युद्द जीत गया तो त्रिलोक में भी मेरी जय-जयकार होने लगेगी।’ चारों ब्राह्मणों के द्वारा कही बात की व्याख्या कथावाचक से सुन राजा बड़े प्रभावित हुए और उन्होंने कथावाचक सहित उन चारों ब्राह्मणों को स्वर्ण मुद्राओं के साथ कई बहुमूल्य चीजें दान स्वरूप देकर विदा किया। दोस्तों वैसे तो इस कहानी का संदेश बड़ा स्पष्ट है और निश्चित तौर पर आप उसे समझ ही गये होंगे। लेकिन फिर भी हम संक्षेप में उस पर चर्चा कर लेते हैं। अगर आप चारों ब्राह्मणों द्वारा कही गई बात पर गौर करेंगे तो पाएँगे कि वास्तव में इनका रामायण से कोई लेना-देना नहीं था और वे पढ़ना-लिखना ना आने के कारण इन बातों को डर और घबराहट की वजह से दोहरा रहे थे। आप स्वयं सोच कर देखिये अगर महाराज को यह बात पता लग जाती तो उन ब्राह्मणों का क्या हश्र होता? लेकिन ऐसा कुछ होता उसके पहले ही विद्वान् कथावाचक द्वारा उसकी इतनी सुंदर व्याख्या की गई कि वहाँ राजा सहित सभी मौजूद लोग उन्हें विद्वान् मानने लगे और अंत में उन्हें ढेर सारा दान मिला। इसीलिये दोस्तों हमारे यहाँ संगत या साथ को इतना महत्वपूर्ण बताया जाता है। तो आइये साथियों आज से अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये अपनी संगत को बेहतर बनाते हैं।
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