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  • दोस्तों, जीवन में चुनौतियाँ, शुरुआती असफलता या नकारात्मक लहजे में कहूँ तो समस्याएँ और परेशानियाँ उन ही लोगों के हिस्से में आती हैं जो अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये या अपने सपनों को सच करने के लिये प्रयास कर रहे होते हैं याने मेहनत कर रहे होते हैं। इसका अर्थ हुआ चुनौतियाँ, शुरुआती असफलता, समस्याएँ और परेशानियाँ कभी भी अंतिम परिणाम नहीं हो सकती हैं। यह तो सफलता की राह में मिलने वाले छोटे-छोटे पड़ाव हैं। इसीलिये तो कहा गया है, ‘जब तक आप अपनी हार स्वीकार नहीं करते, तब तक आपको कोई भी हरा नहीं सकता।’

    जी हाँ साथियों, हार-जीत, अच्छा-बुरा, सही-ग़लत आदि सभी बातें सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे नज़रिये याने घटनाओं को देखने के हमारे तरीक़े पर निर्भर करती है। इसीलिये मेरा मानना है कि अगर आप अपना जीवन अच्छा बनाना चाहते हैं, तो आपको सबसे पहले अपने नज़रिये को बेहतर बनाना होगा और यह सिर्फ़ और सिर्फ़ तब हो सकता है, जब आप तथाकथित नकारात्मक घटनाओं को सकारात्मक नज़रिये से देखना शुरू कर दें।

    आइये, कुछ नकारात्मक अनुभवों या भावों को सकारात्मक नज़रिये से देखने का प्रयास करेंगे जिससे हम हर हाल में जीवन में आगे बढ सकें।

    १) असंतोष

    जब कोई हमारी इच्छा या अपेक्षा के अनुरूप कार्य या व्यवहार नहीं करता है, तब असंतोष की स्थिति निर्मित होती है। ऐसे समय में अक्सर हम उस कार्य या व्यवहार की ज़िम्मेदारी ख़ुद पर ले लेते हैं और अपनी पूरी क्षमता के साथ उस कार्य को अच्छे से पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। इसका अर्थ हुआ सामने वाले के अपेक्षापूर्ण व्यवहार या कार्य ना कर पाने के कारण ही आपने अपने अंदर झाँका, अपनी क्षमताओं को पहचाना और अपना सर्वश्रेष्ठ देते हुए सफलता प्राप्त करी। अर्थात् आपने महानता भरा काम किया। जैसे ही आप पूरी स्थिति को इस नज़रिये से देखेंगे तो आप पायेंगे कि अब आपके अंदर सामने वाले के लिये ग़ुस्से का भाव नहीं है और अब आप इसके लिये सामने वाले के प्रति धन्यवाद के भाव से भरे हुए हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो असंतोष में धन्यवाद का भाव रखना आपको अपने अंदर झांकने का मौक़ा देता है जिसके कारण आप अपने अंदर छुपी असीमित क्षमताओं को पहचान सकते हैं और ख़ुद को महान बना सकते हैं।

    २) विफलता

    विफलता के लिये भी धन्यवाद का भाव रखें क्योंकि यह आपको अपनी कमज़ोरियों को पहचानने का मौक़ा देती है। साथ ही विफलता से प्राप्त अनुभव आपको समझदार और स्पष्ट बनाता है। जिससे आप आनेवाले समय में सही निर्णय लेकर सफलता प्राप्त कर पाते हैं।

    ३) दिल टूटने पर

    सामान्यतः दिल टूटने पर व्यक्ति स्वयम् को पूरी तरह नकारात्मक भावों के बीच घिरा हुआ और टूटा हुआ पाता है। ऐसे में अगर आप ख़ुद को याद दिलायें कि इस दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ आप हैं और इसीलिये आप ख़ुद को सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, तो आप ख़ुद को एक बार फिर रिबिल्ड कर पायेंगे। इसलिये ऐसी स्थिति में ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहें, ‘प्रभु, मुझे पूरी तरह से तोड़ने और एक नए रूप में जन्म देने के लिए धन्यवाद।’

    ४) ईर्ष्या

    ईर्ष्या सामान्यतः तुलना का नतीजा होती है। ऐसे में ख़ुद को याद दिलायें कि इस स्थिति याने तुलना ने आपको वह पहचानने का मौक़ा दिया है जो आप गुप्त रूप से हासिल करना चाहते थे या यह उस स्थिति का प्रतिबिंब है जैसे आप बनना चाहते थे।

    ५) अकेलापन

    जब भी आपको अकेलेपन का एहसास हो, ख़ुद को याद दिलायें कि यह समय इस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण, विशेष और अच्छे व्यक्ति से मिलने का अवसर है और वह विशेष व्यक्ति आप स्वयं है। याने इस समय में आप ख़ुद के साथ समय बितायें, जिससे आप ख़ुद को और बेहतर तरीक़े से जान पायेंगे। इसके साथ ही ईश्वर को धन्यवाद दें कि उन्होंने आपको आराम करने, ख़ुद को खोजने और ख़ुद की सराहना करने का मौक़ा दिया है।

    ६) विश्वासघात

    प्रभु, विश्वासघात के लिये मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ क्योंकि आपने मुझे समय रहते उन लोगों के प्रति सचेत कर दिया जो मुझे बड़ा नुक़सान पहुँचा सकते थे। दूसरे शब्दों में कहूँ तो प्रभु, समय से पूर्व सच्चाई और प्रामाणिकता से काम नहीं करने वाले लोगों के प्रति मुझे सचेत करने के लिये धन्यवाद!, इसकी सहायता से मैं अपने बड़े लक्ष्यों को अच्छे से, बिना रुकावट के पा पाऊँगा।

    ७) रिजेक्शन याने अस्वीकृति पर

    रिजेक्शन या अस्वीकृति के माध्यम से ईश्वर हमें उनसे दूर करना चाहता है जिनका साथ आने वाले जीवन को ईश्वर की योजना के अनुरूप नहीं बनाता है। इसके साथ ही ईश्वर अस्वीकृति के माध्यम से हमारे जीवन को नई दिशा देना चाहता है या हमें पुनर्निर्देशित करना चाहता है। साथ ही अगर यह रिजेक्शन या अस्वीकृति रिश्ते से संबंधित हो तो इसका तात्पर्य है कि ईश्वर आपको ख़ुद से प्यार करना सिखाना चाहता है। इस अनुपम मौक़े के लिये ईश्वर को धन्यवाद दें।

    ८) बीच राह में छोड़ने या परित्याग करने पर

    जीवन पथ पर आगे बढ़ते समय जो लोग मेरे समान प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं। जिनका साथ मुझे मेरे जीवन को ख़ुशनुमा नहीं बना सकता है, ईश्वर उनका साथ बीच राह में छुड़वा देता है; उनसे हमारा परित्याग करवा देता है। वैसे यह स्वयं को पूर्ण बनाने का ईश्वर द्वारा दिया हुआ स्वर्णिम मौक़ा होता है इसलिये इसके लिये भी ईश्वर के आभारी रहें।

    ९) दर्द के लिये

    यह ईश्वर का आपको सशक्त और मज़बूत बनाने का नायब तरीक़ा है। यह बिना किसी धारणा के आपको अपनी भावनाओं को महसूस करने का मौक़ा देता है। इसके लिये भी ईश्वर के आभारी रहें।

    दोस्तों, इन भावों और नज़रिये को विकसित करने के लिये आप ख़ुद को भी धन्यवाद कहें क्योंकि उपरोक्त अनुभव और नज़रिया आपको इस जीवन के प्रति सशक्त और पर्याप्त रूप से मज़बूत बनाता है जिससे आप हर हाल में खुश रहना सीख सकते हैं। यह आपको नकारात्मक अनुभवों के बाद ठीक होने, जीवन में आगे बढ़ने, विकास करने, बदलने, सक्षम बनने के साथ-साथ वह बनने का मौक़ा देता है, जिसके लिये ईश्वर ने आपको यह जन्म दिया है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो असफलता, परेशानी, मुश्किल या चुनौती का सामना मुस्कुरा कर करना सीख जाना असल में आपको हार को जीत में बदलना और हर हाल में खुश रहना सिखाता है।
    दोस्तों, जीवन में चुनौतियाँ, शुरुआती असफलता या नकारात्मक लहजे में कहूँ तो समस्याएँ और परेशानियाँ उन ही लोगों के हिस्से में आती हैं जो अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये या अपने सपनों को सच करने के लिये प्रयास कर रहे होते हैं याने मेहनत कर रहे होते हैं। इसका अर्थ हुआ चुनौतियाँ, शुरुआती असफलता, समस्याएँ और परेशानियाँ कभी भी अंतिम परिणाम नहीं हो सकती हैं। यह तो सफलता की राह में मिलने वाले छोटे-छोटे पड़ाव हैं। इसीलिये तो कहा गया है, ‘जब तक आप अपनी हार स्वीकार नहीं करते, तब तक आपको कोई भी हरा नहीं सकता।’ जी हाँ साथियों, हार-जीत, अच्छा-बुरा, सही-ग़लत आदि सभी बातें सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे नज़रिये याने घटनाओं को देखने के हमारे तरीक़े पर निर्भर करती है। इसीलिये मेरा मानना है कि अगर आप अपना जीवन अच्छा बनाना चाहते हैं, तो आपको सबसे पहले अपने नज़रिये को बेहतर बनाना होगा और यह सिर्फ़ और सिर्फ़ तब हो सकता है, जब आप तथाकथित नकारात्मक घटनाओं को सकारात्मक नज़रिये से देखना शुरू कर दें। आइये, कुछ नकारात्मक अनुभवों या भावों को सकारात्मक नज़रिये से देखने का प्रयास करेंगे जिससे हम हर हाल में जीवन में आगे बढ सकें। १) असंतोष जब कोई हमारी इच्छा या अपेक्षा के अनुरूप कार्य या व्यवहार नहीं करता है, तब असंतोष की स्थिति निर्मित होती है। ऐसे समय में अक्सर हम उस कार्य या व्यवहार की ज़िम्मेदारी ख़ुद पर ले लेते हैं और अपनी पूरी क्षमता के साथ उस कार्य को अच्छे से पूर्ण करने का प्रयास करते हैं। इसका अर्थ हुआ सामने वाले के अपेक्षापूर्ण व्यवहार या कार्य ना कर पाने के कारण ही आपने अपने अंदर झाँका, अपनी क्षमताओं को पहचाना और अपना सर्वश्रेष्ठ देते हुए सफलता प्राप्त करी। अर्थात् आपने महानता भरा काम किया। जैसे ही आप पूरी स्थिति को इस नज़रिये से देखेंगे तो आप पायेंगे कि अब आपके अंदर सामने वाले के लिये ग़ुस्से का भाव नहीं है और अब आप इसके लिये सामने वाले के प्रति धन्यवाद के भाव से भरे हुए हैं। दूसरे शब्दों में कहूँ तो असंतोष में धन्यवाद का भाव रखना आपको अपने अंदर झांकने का मौक़ा देता है जिसके कारण आप अपने अंदर छुपी असीमित क्षमताओं को पहचान सकते हैं और ख़ुद को महान बना सकते हैं। २) विफलता विफलता के लिये भी धन्यवाद का भाव रखें क्योंकि यह आपको अपनी कमज़ोरियों को पहचानने का मौक़ा देती है। साथ ही विफलता से प्राप्त अनुभव आपको समझदार और स्पष्ट बनाता है। जिससे आप आनेवाले समय में सही निर्णय लेकर सफलता प्राप्त कर पाते हैं। ३) दिल टूटने पर सामान्यतः दिल टूटने पर व्यक्ति स्वयम् को पूरी तरह नकारात्मक भावों के बीच घिरा हुआ और टूटा हुआ पाता है। ऐसे में अगर आप ख़ुद को याद दिलायें कि इस दुनिया में सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति सिर्फ़ और सिर्फ़ आप हैं और इसीलिये आप ख़ुद को सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं, तो आप ख़ुद को एक बार फिर रिबिल्ड कर पायेंगे। इसलिये ऐसी स्थिति में ईश्वर को धन्यवाद देते हुए कहें, ‘प्रभु, मुझे पूरी तरह से तोड़ने और एक नए रूप में जन्म देने के लिए धन्यवाद।’ ४) ईर्ष्या ईर्ष्या सामान्यतः तुलना का नतीजा होती है। ऐसे में ख़ुद को याद दिलायें कि इस स्थिति याने तुलना ने आपको वह पहचानने का मौक़ा दिया है जो आप गुप्त रूप से हासिल करना चाहते थे या यह उस स्थिति का प्रतिबिंब है जैसे आप बनना चाहते थे। ५) अकेलापन जब भी आपको अकेलेपन का एहसास हो, ख़ुद को याद दिलायें कि यह समय इस दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण, विशेष और अच्छे व्यक्ति से मिलने का अवसर है और वह विशेष व्यक्ति आप स्वयं है। याने इस समय में आप ख़ुद के साथ समय बितायें, जिससे आप ख़ुद को और बेहतर तरीक़े से जान पायेंगे। इसके साथ ही ईश्वर को धन्यवाद दें कि उन्होंने आपको आराम करने, ख़ुद को खोजने और ख़ुद की सराहना करने का मौक़ा दिया है। ६) विश्वासघात प्रभु, विश्वासघात के लिये मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ क्योंकि आपने मुझे समय रहते उन लोगों के प्रति सचेत कर दिया जो मुझे बड़ा नुक़सान पहुँचा सकते थे। दूसरे शब्दों में कहूँ तो प्रभु, समय से पूर्व सच्चाई और प्रामाणिकता से काम नहीं करने वाले लोगों के प्रति मुझे सचेत करने के लिये धन्यवाद!, इसकी सहायता से मैं अपने बड़े लक्ष्यों को अच्छे से, बिना रुकावट के पा पाऊँगा। ७) रिजेक्शन याने अस्वीकृति पर रिजेक्शन या अस्वीकृति के माध्यम से ईश्वर हमें उनसे दूर करना चाहता है जिनका साथ आने वाले जीवन को ईश्वर की योजना के अनुरूप नहीं बनाता है। इसके साथ ही ईश्वर अस्वीकृति के माध्यम से हमारे जीवन को नई दिशा देना चाहता है या हमें पुनर्निर्देशित करना चाहता है। साथ ही अगर यह रिजेक्शन या अस्वीकृति रिश्ते से संबंधित हो तो इसका तात्पर्य है कि ईश्वर आपको ख़ुद से प्यार करना सिखाना चाहता है। इस अनुपम मौक़े के लिये ईश्वर को धन्यवाद दें। ८) बीच राह में छोड़ने या परित्याग करने पर जीवन पथ पर आगे बढ़ते समय जो लोग मेरे समान प्रदर्शन नहीं कर सकते हैं। जिनका साथ मुझे मेरे जीवन को ख़ुशनुमा नहीं बना सकता है, ईश्वर उनका साथ बीच राह में छुड़वा देता है; उनसे हमारा परित्याग करवा देता है। वैसे यह स्वयं को पूर्ण बनाने का ईश्वर द्वारा दिया हुआ स्वर्णिम मौक़ा होता है इसलिये इसके लिये भी ईश्वर के आभारी रहें। ९) दर्द के लिये यह ईश्वर का आपको सशक्त और मज़बूत बनाने का नायब तरीक़ा है। यह बिना किसी धारणा के आपको अपनी भावनाओं को महसूस करने का मौक़ा देता है। इसके लिये भी ईश्वर के आभारी रहें। दोस्तों, इन भावों और नज़रिये को विकसित करने के लिये आप ख़ुद को भी धन्यवाद कहें क्योंकि उपरोक्त अनुभव और नज़रिया आपको इस जीवन के प्रति सशक्त और पर्याप्त रूप से मज़बूत बनाता है जिससे आप हर हाल में खुश रहना सीख सकते हैं। यह आपको नकारात्मक अनुभवों के बाद ठीक होने, जीवन में आगे बढ़ने, विकास करने, बदलने, सक्षम बनने के साथ-साथ वह बनने का मौक़ा देता है, जिसके लिये ईश्वर ने आपको यह जन्म दिया है। दूसरे शब्दों में कहूँ तो असफलता, परेशानी, मुश्किल या चुनौती का सामना मुस्कुरा कर करना सीख जाना असल में आपको हार को जीत में बदलना और हर हाल में खुश रहना सिखाता है।
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  • दोस्तों, भाग्य और कर्म दो ऐसे विषय हैं जिन पर सबका मत समान होना थोड़ा मुश्किल ही है। कोई आपको कर्म को प्रधान बतायेगा, तो कोई भाग्य को महत्वपूर्ण बताते हुए कहेगा की ‘कुछ भी कर लो मिलेगा वही जो क़िस्मत में लिखा होगा।’ लेकिन अगर आप इस विषय में मेरी धारणा या राय पूछेंगे तो मैं कर्म को प्रधान बताऊँगा क्योंकि हो सकता है ईश्वर ने मेरे भाग्य में लिखा हो कि कर्म करने पर ही मुझे वांछित फल प्राप्त होंगे। वैसे कर्म को प्रधान मानने की मेरी एक और वजह है, भाग्य में क्या लिखा है, यह हममें से किसी को भी पता नहीं है और ना ही हममें से कोई इसे पढ़ सकता है। लेकिन कर्म करना सदैव हम सभी के हाथ में होता है।

    ऐसी स्थिति में एक प्रश्न निश्चित तौर पर आपके मन में आ सकता है कि अगर कर्म ही प्रधान था तो फिर ‘ईश्वर की इच्छा’ और ‘भाग्य के अनुसार ही हमें फल मिलता है’ या ‘ईश्वर की इच्छानुसार ही सब कुछ घटता है’, जैसी बातें या मान्यतायें कैसे प्रचलन में आ गई? असल में दोस्तों, मुझे तो लगता है कि हमारे पूर्वजों और गुरुओं ने इन मान्यताओं को हमें विपत्ति याने विपरीत और चुनौती भरे समय में टूटने और अच्छे समय में अहंकारी बनने से बचाने के लिये बनाया होगा।

    मेरी बात पर प्रतिक्रिया देने के पूर्व साथियों थोड़ा गम्भीरता से सोचियेगा। मेरा विचार नास्तिक विचारधारा से प्रेरित नहीं है और ना ही मैं परमपिता परमेश्वर अर्थात ईश्वर या भगवान की सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा हूँ। मैं तो ऐसा सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये कह पा रहा हूँ क्योंकि मैं उस परमपिता परमेश्वर के प्रति पूर्णतः

    आस्थावान हूँ। आप ख़ुद सोचकर देखिये जिस परमपिता परमेश्वर ने हमें देवताओं समान असीम शक्तियों के साथ इस धरती पर भेजा है, क्या वह परमेश्वर हमें भाग्य जैसे किसी बंधन में बांध कर रखेगा? मेरी नज़र में तो शायद नहीं। इसीलिये मैं भाग्य और हरिइच्छा जैसी बातों को मान्यता मान रहा हूँ।

    याद रखियेगा, अगर ईश्वरीय सत्ता की आड़ में किसी भी इंसान ने बार-बार इन मान्यताओं का उपयोग कर्मप्रधानता के सिद्धांत के विरुद्ध जाकर किया तो वह व्यक्ति निश्चित तौर पर कायर, अकर्मण्य और निरुत्साही बन जायेगा। जी हाँ दोस्तों, प्रतिभा एक कौशल है अर्थात् यह कोई जन्मजात योग्यता नहीं है और अगर यह जन्मजात योग्यता नहीं है तो निच्छित तौर पर यह आसमान से बरसती भी नहीं होगी और ना ही राम-राम रटने से मिलती होगी। यह तो एक ऐसी विशेषता है जिसे कर्म करते हुए अपने अंदर विकसित किया जा सकता है। इस आधार पर प्रतिभावान बनने के लिये आपका कर्मप्रधान मनुष्य होना ही पर्याप्त है।

    अगर आपको अभी भी मेरी बात पर विश्वास नहीं है तो एक बात बताइये, सवर्णों और पढ़े-लिखों के मुक़ाबले ईश्वर ने कबीरदास जी या रैदास जी जैसे लोगों को इतना विशेष या प्रतिभावान क्यों बनाया? इसी तरह ढेरों बलिष्ठ, बलवान और पैसे वालों को छोड़कर कमजोर शरीर वाले गांधीजी और कुरुप आचार्य चाणक्य को विशेष योग्यता या प्रतिभा का धनी बनाने के लिये क्यों चुना?

    असल में साथियों, प्रतिभा का किसी भी विशेषता से लेना- देना नहीं है। वह तो बिना किसी भेदभाव के उसके पास जाती है जो उसे पाने के लिये अपनी पूरी क्षमता और निष्ठा के साथ कर्म करता है। इसके विपरीत अगर वह बुरे कर्मों या व्यसनों में उलझता है तो वह कितना भी सक्षम क्यों न हो, वह अपना सारा समय, संपत्ति और जीवन निरर्थक ही गँवा देता है। यह स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे अपव्ययी अपनी बुरी आदतों को पूरा करने के लिये अपनी सारी संपत्ति गँवा देता है। साथियों यदि आप वाक़ई अपने जीवन में सफल बनना चाहते हैं तो ईश्वर पर विश्वास रखें क्योंकि उसकी सत्ता भाग्य नहीं न्याय प्रधान है। चूँकि ईश्वर सर्वव्यापी है इसलिये वह हमारे कर्मों के अनुरूप फल देता है। याने हम अपने कर्मों के आधार पर ईश्वर द्वारा लिये गये निर्णय के अनुरूप जीवन में गिरते या उठते हैं। एक बार विचार करके देखियेगा ज़रूर…
    दोस्तों, भाग्य और कर्म दो ऐसे विषय हैं जिन पर सबका मत समान होना थोड़ा मुश्किल ही है। कोई आपको कर्म को प्रधान बतायेगा, तो कोई भाग्य को महत्वपूर्ण बताते हुए कहेगा की ‘कुछ भी कर लो मिलेगा वही जो क़िस्मत में लिखा होगा।’ लेकिन अगर आप इस विषय में मेरी धारणा या राय पूछेंगे तो मैं कर्म को प्रधान बताऊँगा क्योंकि हो सकता है ईश्वर ने मेरे भाग्य में लिखा हो कि कर्म करने पर ही मुझे वांछित फल प्राप्त होंगे। वैसे कर्म को प्रधान मानने की मेरी एक और वजह है, भाग्य में क्या लिखा है, यह हममें से किसी को भी पता नहीं है और ना ही हममें से कोई इसे पढ़ सकता है। लेकिन कर्म करना सदैव हम सभी के हाथ में होता है। ऐसी स्थिति में एक प्रश्न निश्चित तौर पर आपके मन में आ सकता है कि अगर कर्म ही प्रधान था तो फिर ‘ईश्वर की इच्छा’ और ‘भाग्य के अनुसार ही हमें फल मिलता है’ या ‘ईश्वर की इच्छानुसार ही सब कुछ घटता है’, जैसी बातें या मान्यतायें कैसे प्रचलन में आ गई? असल में दोस्तों, मुझे तो लगता है कि हमारे पूर्वजों और गुरुओं ने इन मान्यताओं को हमें विपत्ति याने विपरीत और चुनौती भरे समय में टूटने और अच्छे समय में अहंकारी बनने से बचाने के लिये बनाया होगा। मेरी बात पर प्रतिक्रिया देने के पूर्व साथियों थोड़ा गम्भीरता से सोचियेगा। मेरा विचार नास्तिक विचारधारा से प्रेरित नहीं है और ना ही मैं परमपिता परमेश्वर अर्थात ईश्वर या भगवान की सत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहा हूँ। मैं तो ऐसा सिर्फ़ और सिर्फ़ इसलिये कह पा रहा हूँ क्योंकि मैं उस परमपिता परमेश्वर के प्रति पूर्णतः आस्थावान हूँ। आप ख़ुद सोचकर देखिये जिस परमपिता परमेश्वर ने हमें देवताओं समान असीम शक्तियों के साथ इस धरती पर भेजा है, क्या वह परमेश्वर हमें भाग्य जैसे किसी बंधन में बांध कर रखेगा? मेरी नज़र में तो शायद नहीं। इसीलिये मैं भाग्य और हरिइच्छा जैसी बातों को मान्यता मान रहा हूँ। याद रखियेगा, अगर ईश्वरीय सत्ता की आड़ में किसी भी इंसान ने बार-बार इन मान्यताओं का उपयोग कर्मप्रधानता के सिद्धांत के विरुद्ध जाकर किया तो वह व्यक्ति निश्चित तौर पर कायर, अकर्मण्य और निरुत्साही बन जायेगा। जी हाँ दोस्तों, प्रतिभा एक कौशल है अर्थात् यह कोई जन्मजात योग्यता नहीं है और अगर यह जन्मजात योग्यता नहीं है तो निच्छित तौर पर यह आसमान से बरसती भी नहीं होगी और ना ही राम-राम रटने से मिलती होगी। यह तो एक ऐसी विशेषता है जिसे कर्म करते हुए अपने अंदर विकसित किया जा सकता है। इस आधार पर प्रतिभावान बनने के लिये आपका कर्मप्रधान मनुष्य होना ही पर्याप्त है। अगर आपको अभी भी मेरी बात पर विश्वास नहीं है तो एक बात बताइये, सवर्णों और पढ़े-लिखों के मुक़ाबले ईश्वर ने कबीरदास जी या रैदास जी जैसे लोगों को इतना विशेष या प्रतिभावान क्यों बनाया? इसी तरह ढेरों बलिष्ठ, बलवान और पैसे वालों को छोड़कर कमजोर शरीर वाले गांधीजी और कुरुप आचार्य चाणक्य को विशेष योग्यता या प्रतिभा का धनी बनाने के लिये क्यों चुना? असल में साथियों, प्रतिभा का किसी भी विशेषता से लेना- देना नहीं है। वह तो बिना किसी भेदभाव के उसके पास जाती है जो उसे पाने के लिये अपनी पूरी क्षमता और निष्ठा के साथ कर्म करता है। इसके विपरीत अगर वह बुरे कर्मों या व्यसनों में उलझता है तो वह कितना भी सक्षम क्यों न हो, वह अपना सारा समय, संपत्ति और जीवन निरर्थक ही गँवा देता है। यह स्थिति ठीक वैसी ही है जैसे अपव्ययी अपनी बुरी आदतों को पूरा करने के लिये अपनी सारी संपत्ति गँवा देता है। साथियों यदि आप वाक़ई अपने जीवन में सफल बनना चाहते हैं तो ईश्वर पर विश्वास रखें क्योंकि उसकी सत्ता भाग्य नहीं न्याय प्रधान है। चूँकि ईश्वर सर्वव्यापी है इसलिये वह हमारे कर्मों के अनुरूप फल देता है। याने हम अपने कर्मों के आधार पर ईश्वर द्वारा लिये गये निर्णय के अनुरूप जीवन में गिरते या उठते हैं। एक बार विचार करके देखियेगा ज़रूर…
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  • दोस्तों, शब्दों का हमारे जीवन में बड़ा योगदान है, किसी के कहे शब्द आपको ऊर्जा से भर सकते हैं, तो किसी के कहे शब्द आपको हताश भी कर सकते हैं। ठीक इसी तरह आपके कहे शब्द आपको किसी के दिल में, तो किसी के दिल से उतार सकते हैं। इसीलिये कहा जाता है, ‘जो इंसान शब्दों की शक्ति को समझ जाता है, वह अपने जीवन को आसान व उपयोगी बना लेता है।’ मेरी नज़र में तो शब्द ही किसी इंसान की असली पहचान होते हैं। इसीलिये कहा गया है, ‘जब तक आप चुप है तब तक शब्द आपके ग़ुलाम हैं और बोलने के बाद आप शब्दों के ग़ुलाम हैं।’ जी हाँ साथियों, एक ओर जहाँ शब्द हथियारों के घाव को आसानी से भर सकते हैं वहीं दूसरी ओर शब्दों के द्वारा दिये गये घाव किसी के जीवन को ख़त्म तक कर सकते हैं। अपनी बात को मैं दोस्तों, आपको इस दुनिया के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन से समझाने का प्रयास करता हूँ।

    अल्बर्ट आइंस्टीन, ३ वर्ष की उम्र तक ठीक से बोल नहीं पाते थे और साथ ही उन्हें किसी भी नई चीज को सीखने या समझने में बहुत अधिक वक़्त लगता था। इसी कारण एक दिन विद्यालय ने अल्बर्ट की माँ को एक पत्र लिखकर सूचित किया कि आपका बेटा ‘स्लो लर्नर’ है और उसे सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाना असंभव है। इसलिये कृपया उसे विद्यालय से निकाल लीजिये। पत्र जब आइंस्टीन की माँ ने पढ़ा तो उनकी आँखों से आसूँ बहने लगे। माँ को रोते देख आइंस्टीन ने पूछा, ‘माँ, इस पत्र में ऐसा क्या लिखा है जो तुम रो रही हो।’ माँ ने तुरंत अपने आसूँ पोंछे और आइंस्टीन के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘कुछ नहीं, विद्यालय वालों का बस इतना कहना है कि आपका पुत्र अल्बर्ट बहुत होनहार और काबिल है। उस बच्चे की क़ाबिलियत को निखार पाना वहाँ के शिक्षकों के बस की बात नहीं है। इसलिये अब तुम्हारी आगे की शिक्षा हम घर से ही शुरू करेंगे।’

    हालाँकि आइंस्टीन के माता-पिता विद्यालय के तर्क से सहमत नहीं थे क्योंकि वे जानते थे आइंस्टीन को विद्यालय से इसलिये नफ़रत थी क्योंकि वे वहाँ कुछ नया नहीं सीख पा रहे थे। इसलिये माँ ने सर्वप्रथम घर के माहौल को सीखने के लिये उत्साहवर्धक बनाने का निर्णय लिया और वे उन्हें सीखने में मदद करने वाले खिलौने और किताबें उपलब्ध करवाने लगी। इससे आइंस्टीन में पढ़ाई के प्रति रुचि पैदा होने लगी। कुछ समय बाद माँ को एहसास हुआ कि आइंस्टीन को फ़ोकस करने में दिक़्क़त होती है और वे हर कार्य को जल्दबाज़ी याने हड़बड़ाहट में करते हैं। फ़ोकस बढ़ाने और धैर्य विकसित करने के लिये उन्होंने आइंस्टीन को वायलिन सिखाना शुरू कर दिया। असल में संगीत में रुचि होने के कारण वे जानती थी कि बिना धैर्य और फ़ोकस के संगीत सीखना असंभव है और अगर आइंस्टीन की रुचि संगीत में हो गई तो वे धैर्य के साथ फ़ोकस बनाये रखना सीख जाएँगे।

    जैसे-जैसे आइंस्टीन बड़े होते गए, उनकी माँ ने उनकी जिज्ञासा बढ़ाने के लिये नये-नये प्रयोग करना शुरू कर दिये। जैसे, हर गुरुवार को पूरे परिवार और वैज्ञानिक मित्रों के लिये दोपहर का भोज आयोजित करना। भोजन के समय पर आइंस्टीन के चाचा अक्सर उनसे बीज गणित के पेचीदा प्रश्न पूछा करते थे और जब भी आइंस्टीन उसके सही जवाब दे पाते थे, वे ख़ुशी से चिल्ला कर उछला करते थे। इस प्रयोग का नतीजा यह हुआ कि मात्र बारह साल की उम्र में उन्होंने कैलकुलस का अध्ययन शुरू कर दिया। दोस्तों, इसके आगे की कहानी तो पूरी दुनिया जानती ही है।

    दोस्तों, अगर आपका लक्ष्य शब्दों पर पकड़ विकसित कर लोगों के दिलों को जीतना; अपने लक्ष्यों को पाना है तो आज ही से निम्न तीन सूत्रों को अपनी जीवनशैली का हिस्सा बना लें-

    पहला सूत्र - प्रेरणादायी शब्दों का प्रयोग करें

    सामान्य बातचीत के दौरान प्रेरणादायी शब्दों का प्रयोग करना आपको सामने वाले के दिल में विशिष्ट स्थान दिलाता है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आप सामने वाले के दिल को जीतने के प्रयास में झूठ बोलना शुरू कर दें। अगर आपको सामने वाले में कुछ कमियाँ नज़र आ रही है तो उसे इस विषय में अवश्य बतायें लेकिन उससे होने वाली समस्याओं और उसे दूर करने के समाधान के साथ।

    दूसरा सूत्र - नकारात्मक सोच वाले लोगों से दूर रहें

    संगत हमेशा आपकी रंगत बदलती है। अगर आप नकारात्मक लोगों के साथ रहेंगे तो वैसा नज़रिया रखेंगे और सकारात्मक लोगों के साथ रहेंगे तो वैसा, और जैसा आपका नज़रिया होगा वैसे ही शब्दों का प्रयोग आप बातचीत के दौरान करेंगे।

    तीसरा सूत्र - ख़ुद से सकारात्मक बातचीत करें

    ख़ुद से कहे शब्द हमारे जीवन पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालते हैं क्योंकि यह आपके अंतर्मन में कही गई बात के प्रति विश्वास पैदा करते हैं। याद रखियेगा, ख़ुद से कहे शब्द पहले विचार को जन्म देते हैं और विचार आपकी सोच, नज़रिये और व्यवहार को प्रभावित कर जीवन की दिशा और दशा बेहतर बनाता है।

    इसलिए दोस्तों, शब्दों की शक्ति को पहचानिये और जहाँ तक संभव हो सके सकारात्मक शब्दों का प्रयोग कीजिए, इस विश्वास के साथ कि कहे गये शब्द आपकी और आपके आसपास मौजूद लोगों की ज़िन्दगी बदल रहे हैं।

    दोस्तों, शब्दों का हमारे जीवन में बड़ा योगदान है, किसी के कहे शब्द आपको ऊर्जा से भर सकते हैं, तो किसी के कहे शब्द आपको हताश भी कर सकते हैं। ठीक इसी तरह आपके कहे शब्द आपको किसी के दिल में, तो किसी के दिल से उतार सकते हैं। इसीलिये कहा जाता है, ‘जो इंसान शब्दों की शक्ति को समझ जाता है, वह अपने जीवन को आसान व उपयोगी बना लेता है।’ मेरी नज़र में तो शब्द ही किसी इंसान की असली पहचान होते हैं। इसीलिये कहा गया है, ‘जब तक आप चुप है तब तक शब्द आपके ग़ुलाम हैं और बोलने के बाद आप शब्दों के ग़ुलाम हैं।’ जी हाँ साथियों, एक ओर जहाँ शब्द हथियारों के घाव को आसानी से भर सकते हैं वहीं दूसरी ओर शब्दों के द्वारा दिये गये घाव किसी के जीवन को ख़त्म तक कर सकते हैं। अपनी बात को मैं दोस्तों, आपको इस दुनिया के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन के जीवन से समझाने का प्रयास करता हूँ। अल्बर्ट आइंस्टीन, ३ वर्ष की उम्र तक ठीक से बोल नहीं पाते थे और साथ ही उन्हें किसी भी नई चीज को सीखने या समझने में बहुत अधिक वक़्त लगता था। इसी कारण एक दिन विद्यालय ने अल्बर्ट की माँ को एक पत्र लिखकर सूचित किया कि आपका बेटा ‘स्लो लर्नर’ है और उसे सामान्य बच्चों के साथ पढ़ाना असंभव है। इसलिये कृपया उसे विद्यालय से निकाल लीजिये। पत्र जब आइंस्टीन की माँ ने पढ़ा तो उनकी आँखों से आसूँ बहने लगे। माँ को रोते देख आइंस्टीन ने पूछा, ‘माँ, इस पत्र में ऐसा क्या लिखा है जो तुम रो रही हो।’ माँ ने तुरंत अपने आसूँ पोंछे और आइंस्टीन के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली, ‘कुछ नहीं, विद्यालय वालों का बस इतना कहना है कि आपका पुत्र अल्बर्ट बहुत होनहार और काबिल है। उस बच्चे की क़ाबिलियत को निखार पाना वहाँ के शिक्षकों के बस की बात नहीं है। इसलिये अब तुम्हारी आगे की शिक्षा हम घर से ही शुरू करेंगे।’ हालाँकि आइंस्टीन के माता-पिता विद्यालय के तर्क से सहमत नहीं थे क्योंकि वे जानते थे आइंस्टीन को विद्यालय से इसलिये नफ़रत थी क्योंकि वे वहाँ कुछ नया नहीं सीख पा रहे थे। इसलिये माँ ने सर्वप्रथम घर के माहौल को सीखने के लिये उत्साहवर्धक बनाने का निर्णय लिया और वे उन्हें सीखने में मदद करने वाले खिलौने और किताबें उपलब्ध करवाने लगी। इससे आइंस्टीन में पढ़ाई के प्रति रुचि पैदा होने लगी। कुछ समय बाद माँ को एहसास हुआ कि आइंस्टीन को फ़ोकस करने में दिक़्क़त होती है और वे हर कार्य को जल्दबाज़ी याने हड़बड़ाहट में करते हैं। फ़ोकस बढ़ाने और धैर्य विकसित करने के लिये उन्होंने आइंस्टीन को वायलिन सिखाना शुरू कर दिया। असल में संगीत में रुचि होने के कारण वे जानती थी कि बिना धैर्य और फ़ोकस के संगीत सीखना असंभव है और अगर आइंस्टीन की रुचि संगीत में हो गई तो वे धैर्य के साथ फ़ोकस बनाये रखना सीख जाएँगे। जैसे-जैसे आइंस्टीन बड़े होते गए, उनकी माँ ने उनकी जिज्ञासा बढ़ाने के लिये नये-नये प्रयोग करना शुरू कर दिये। जैसे, हर गुरुवार को पूरे परिवार और वैज्ञानिक मित्रों के लिये दोपहर का भोज आयोजित करना। भोजन के समय पर आइंस्टीन के चाचा अक्सर उनसे बीज गणित के पेचीदा प्रश्न पूछा करते थे और जब भी आइंस्टीन उसके सही जवाब दे पाते थे, वे ख़ुशी से चिल्ला कर उछला करते थे। इस प्रयोग का नतीजा यह हुआ कि मात्र बारह साल की उम्र में उन्होंने कैलकुलस का अध्ययन शुरू कर दिया। दोस्तों, इसके आगे की कहानी तो पूरी दुनिया जानती ही है। दोस्तों, अगर आपका लक्ष्य शब्दों पर पकड़ विकसित कर लोगों के दिलों को जीतना; अपने लक्ष्यों को पाना है तो आज ही से निम्न तीन सूत्रों को अपनी जीवनशैली का हिस्सा बना लें- पहला सूत्र - प्रेरणादायी शब्दों का प्रयोग करें सामान्य बातचीत के दौरान प्रेरणादायी शब्दों का प्रयोग करना आपको सामने वाले के दिल में विशिष्ट स्थान दिलाता है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं है कि आप सामने वाले के दिल को जीतने के प्रयास में झूठ बोलना शुरू कर दें। अगर आपको सामने वाले में कुछ कमियाँ नज़र आ रही है तो उसे इस विषय में अवश्य बतायें लेकिन उससे होने वाली समस्याओं और उसे दूर करने के समाधान के साथ। दूसरा सूत्र - नकारात्मक सोच वाले लोगों से दूर रहें संगत हमेशा आपकी रंगत बदलती है। अगर आप नकारात्मक लोगों के साथ रहेंगे तो वैसा नज़रिया रखेंगे और सकारात्मक लोगों के साथ रहेंगे तो वैसा, और जैसा आपका नज़रिया होगा वैसे ही शब्दों का प्रयोग आप बातचीत के दौरान करेंगे। तीसरा सूत्र - ख़ुद से सकारात्मक बातचीत करें ख़ुद से कहे शब्द हमारे जीवन पर सबसे ज्यादा प्रभाव डालते हैं क्योंकि यह आपके अंतर्मन में कही गई बात के प्रति विश्वास पैदा करते हैं। याद रखियेगा, ख़ुद से कहे शब्द पहले विचार को जन्म देते हैं और विचार आपकी सोच, नज़रिये और व्यवहार को प्रभावित कर जीवन की दिशा और दशा बेहतर बनाता है। इसलिए दोस्तों, शब्दों की शक्ति को पहचानिये और जहाँ तक संभव हो सके सकारात्मक शब्दों का प्रयोग कीजिए, इस विश्वास के साथ कि कहे गये शब्द आपकी और आपके आसपास मौजूद लोगों की ज़िन्दगी बदल रहे हैं।
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  • दोस्तों, अगर आप कर्मवीर हैं अर्थात् प्रतिदिन किन्हीं लक्ष्यों को पाने के लिये अपनी ओर से भरसक प्रयास कर रहे हैं; मेहनत कर रहे हैं तो यक़ीन मानियेगा कभी सफलता आपके कदम चूमेगी तो कभी असफलता आपको मुँह चिड़ायेगी; आपके आत्मविश्वास को डगमगा कर हौंसले को कम करेगी। लेकिन दोस्तों अगर आपने असफलता को सफलता की राह में मिलने वाली सीख मानना शुरू कर दिया तो आपको सफल होने से कोई रोक नहीं सकता है।

    जी हाँ साथियों, मैंने जीवन से मिले अब तक के अनुभव से तो यही सीखा है। आज अगर मैं जीवन में पीछे पलटकर अपनी असफलताओं को देखता हूँ तो ऐसा लगता है, जैसे, वे सब सफलता तक पहुँचाने वाली सीढ़ीयाँ थी। उदाहरण के लिये , तमाम तकनीकी योग्यताएँ एवं ज्ञान होने के बाद भी जब कंप्यूटर के व्यवसाय में असफलता हाथ लगी तो मैंने जीवन में नज़रिये के महत्व को समझा और सीखा कि सफलता प्रतिभा की अपेक्षा दृष्टिकोण पर अधिक निर्भर करती है। इसी तरह कई बार सफलता-असफलता के बीच झूलते हुए मैंने सीखा कि अगर हमारी ख़ुशी सफलता और असफलता पर निर्भर हुई तो हम निश्चित तौर पर जीवन भर दुखी ही रहने वाले हैं। इसलिये आज मैं हर हाल में खुश रहता हूँ।

    इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि अब मैं जीवन में मिली असफलताओं के लिये भी ईश्वर का आभारी हूँ। वैसे दोस्तों, यही बात हमारे धर्मग्रन्थ महाभारत ने हमें सिखाई है। जब पांडव विपत्ति के दौर से गुजर रहे थे तब माता कुंती ने ईश्वर का धन्यवाद देते हुए कहा था,‘धन्यवाद प्रभु, मेरे जीवन में अगर यह दुःख ना आता, तो मै आपका स्मरण कैसे करती? मैं कहीं अपने सुखों में उलझकर दिग्भ्रमित ना हो जाऊँ, इसीलिए आपने मेरे ऊपर यह कृपा की होगी।’ ठीक इसी तरह की सीख हमें सुदामा जी से भी मिलती है। जब भी ग़रीबी या परिस्थिति के कारण सुदामा जी को भूखा रहना पड़ता था तो वे अपने प्रभि को धन्यवाद देते हुए कहते थे, ‘हे प्रभु! आपकी कृपा से आज मुझे एक बार फिर एकादशी जैसा पुण्य प्राप्त हो रहा है।’

    याद रखियेगा दोस्तों, जीवन की प्रत्येक परिस्थिति हमें जीवन को बेहतर बनाने के लिये आवश्यक, कोई न कोई संदेश देती है। जी हाँ, यक़ीन मानियेगा इस जीवन में ऐसी कोई परिस्थिति ही नहीं है जिसे अवसर में ना बदला जा सके। ईश्वर हमें वही अनुभव देता है या हमारा सामना उन्हीं परेशानियों या चुनौतियों से करवाता है, जिनसे निपटने की क्षमता हमारे अंदर होती है। इसके पीछे उनका उद्देश्य सिर्फ़ और सिर्फ़ हमें अपनी शक्तियाँ याद दिलवाना और इससे मिले अनुभव से हमारे जीवन को बेहतर बनाना होता है।

    इस आधार पर कहा जाये तो हमारे जीवन के सभी सुख और दुख सिर्फ़ और सिर्फ़ इस बात पर निर्भर करते हैं कि हम प्रतिदिन, प्रतिपल का सामना किस नज़रिये से करते हैं याने जीवन में सामने आई विभिन्न परिस्थितियों को किस दृष्टि से देखते हैं। उपरोक्त आधार पर अगर आप सोचेंगे तो पायेंगे कि निश्चित तौर पर सकारात्मक दृष्टि हमारे जीवन को सुखमय बना देती है। एक बार दोस्तों, इस पर विचार कर देखियेगा ज़रूर…
    दोस्तों, अगर आप कर्मवीर हैं अर्थात् प्रतिदिन किन्हीं लक्ष्यों को पाने के लिये अपनी ओर से भरसक प्रयास कर रहे हैं; मेहनत कर रहे हैं तो यक़ीन मानियेगा कभी सफलता आपके कदम चूमेगी तो कभी असफलता आपको मुँह चिड़ायेगी; आपके आत्मविश्वास को डगमगा कर हौंसले को कम करेगी। लेकिन दोस्तों अगर आपने असफलता को सफलता की राह में मिलने वाली सीख मानना शुरू कर दिया तो आपको सफल होने से कोई रोक नहीं सकता है। जी हाँ साथियों, मैंने जीवन से मिले अब तक के अनुभव से तो यही सीखा है। आज अगर मैं जीवन में पीछे पलटकर अपनी असफलताओं को देखता हूँ तो ऐसा लगता है, जैसे, वे सब सफलता तक पहुँचाने वाली सीढ़ीयाँ थी। उदाहरण के लिये , तमाम तकनीकी योग्यताएँ एवं ज्ञान होने के बाद भी जब कंप्यूटर के व्यवसाय में असफलता हाथ लगी तो मैंने जीवन में नज़रिये के महत्व को समझा और सीखा कि सफलता प्रतिभा की अपेक्षा दृष्टिकोण पर अधिक निर्भर करती है। इसी तरह कई बार सफलता-असफलता के बीच झूलते हुए मैंने सीखा कि अगर हमारी ख़ुशी सफलता और असफलता पर निर्भर हुई तो हम निश्चित तौर पर जीवन भर दुखी ही रहने वाले हैं। इसलिये आज मैं हर हाल में खुश रहता हूँ। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह हुआ कि अब मैं जीवन में मिली असफलताओं के लिये भी ईश्वर का आभारी हूँ। वैसे दोस्तों, यही बात हमारे धर्मग्रन्थ महाभारत ने हमें सिखाई है। जब पांडव विपत्ति के दौर से गुजर रहे थे तब माता कुंती ने ईश्वर का धन्यवाद देते हुए कहा था,‘धन्यवाद प्रभु, मेरे जीवन में अगर यह दुःख ना आता, तो मै आपका स्मरण कैसे करती? मैं कहीं अपने सुखों में उलझकर दिग्भ्रमित ना हो जाऊँ, इसीलिए आपने मेरे ऊपर यह कृपा की होगी।’ ठीक इसी तरह की सीख हमें सुदामा जी से भी मिलती है। जब भी ग़रीबी या परिस्थिति के कारण सुदामा जी को भूखा रहना पड़ता था तो वे अपने प्रभि को धन्यवाद देते हुए कहते थे, ‘हे प्रभु! आपकी कृपा से आज मुझे एक बार फिर एकादशी जैसा पुण्य प्राप्त हो रहा है।’ याद रखियेगा दोस्तों, जीवन की प्रत्येक परिस्थिति हमें जीवन को बेहतर बनाने के लिये आवश्यक, कोई न कोई संदेश देती है। जी हाँ, यक़ीन मानियेगा इस जीवन में ऐसी कोई परिस्थिति ही नहीं है जिसे अवसर में ना बदला जा सके। ईश्वर हमें वही अनुभव देता है या हमारा सामना उन्हीं परेशानियों या चुनौतियों से करवाता है, जिनसे निपटने की क्षमता हमारे अंदर होती है। इसके पीछे उनका उद्देश्य सिर्फ़ और सिर्फ़ हमें अपनी शक्तियाँ याद दिलवाना और इससे मिले अनुभव से हमारे जीवन को बेहतर बनाना होता है। इस आधार पर कहा जाये तो हमारे जीवन के सभी सुख और दुख सिर्फ़ और सिर्फ़ इस बात पर निर्भर करते हैं कि हम प्रतिदिन, प्रतिपल का सामना किस नज़रिये से करते हैं याने जीवन में सामने आई विभिन्न परिस्थितियों को किस दृष्टि से देखते हैं। उपरोक्त आधार पर अगर आप सोचेंगे तो पायेंगे कि निश्चित तौर पर सकारात्मक दृष्टि हमारे जीवन को सुखमय बना देती है। एक बार दोस्तों, इस पर विचार कर देखियेगा ज़रूर…
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  • दोस्तों, मेरी नज़र में रिस्क ना लेना ही जीवन की सबसे बड़ी रिस्क है। अपनी बात को मैं आपको एक क़िस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ। वर्ष १४९२ में नाविकों के एक समूह ने बड़ी महत्वाकांक्षा के साथ एक साहसिक यात्रा करने का निर्णय लिया। नाविकों का पूरा का पूरा समूह इस साहसिक यात्रा के लिए काफ़ी उत्साहित और प्रसन्नचित्त था, सिवाय फ्रोज के, जो इस दुस्साहसी और ख़तरनाक यात्रा की योजना सुनकर ही बुरी तरह डर गया था। उसे लग रहा था कि अनावश्यक रूप से क्यों जीवन को मुश्किल में डालकर इस दुस्साहसी और ख़तरनाक यात्रा पर ज़ाया जाए? इसलिए उसने अन्य नाविकों के मन में भी समुद्री यात्रा के प्रति डर पैदा करने का निर्णय लिया।

    एक दिन फ्रोज की मुलाक़ात पिजारो से हो गई। अपनी योजना के मुताबिक़ फ्रोज ने पिजारो के मन में डर पैदा करने का निर्णय लिया और उससे पूछा, ‘मैंने सुना है तुम्हारे पिता एक बहुत ही अच्छे नाविक थे।’ पिजारो ने हाँ में सर हिलाया तो उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘फिर उनकी मृत्यु कैसे हुई थी?’ दुखी स्वर में पिजारो बोला, ‘एक समुद्री यात्रा के दौरान, असल में उनका जहाज़ एक भीषण समुद्री तूफ़ान के कारण दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।’ फ्रोज ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘और तुम्हारे दादाजी की मृत्यु कैसे हुई थी?’ ‘मेरे दादा और परदादा दोनों भी समुद्र में डूबने के कारण मरे थे।’, पिजारो दुखी होते हुए बोला।

    इतना सुनते ही फ्रोज कुटिल हंसी हंसते हुए बोला, ‘हद है पिजारो। तुम अपने अतीत, अपने अनुभव से भी सीखने को तैयार नहीं हो। जब तुम्हारे परिवार में इतने सारे लोगों की मृत्यु समुद्र में डूबने के कारण हुई है, तो फिर तुम यह अनावश्यक रिस्क क्यों लेना चाहते हो? मुझे तो तुम्हारी बुद्धि पर तरस आ रहा है। इतना सब कुछ होने के बाद भी तुम सुधरने को राज़ी नहीं हो और इस दुस्साहसी और ख़तरनाक यात्रा के लिए हाँ कर अपने जीवन को मुश्किल में डाल रहे हो।

    इतना सुनते ही पिजारो समझ गया कि फ्रोज डर गया है और किसी ना किसी तरह यात्रा टालना चाहता है। उसने तुरंत ख़ुद को सँभालते हुए फ्रोज से पूछा, ‘अब तुम बताओ तुम्हारे पिता की मृत्यु कहाँ हुई थी?’ फ्रोज मुस्कुराते हुए बोला, ‘उन्होंने अपने बिस्तर पर बीड़ी आराम से अंतिम साँस ली थी।’ पिजारो ने फ्रोज को लगभग नज़रंदाज़ करते हुए अगला प्रश्न किया, ‘और तुम्हारे दादाजी की मृत्यु कैसे हुई थी?’ फ्रोज बड़े गर्व के साथ बोला, ‘प्रायः हमारे परिवार में सभी की मृत्यु अपने पलंग पर ही हुई है।’

    शायद पिजारो इसी जवाब के इंतज़ार में था। उसने तुरंत गंभीर रुख़ अपनाते हुए कहा, ‘जब तुम्हारे सभी पूर्वज घर पर अपने बिस्तर पर आराम से मरे है, तो फिर तुम अपने घर जाने और बिस्तर पर सोने की मूर्खता क्यों करते हो? क्या तुम्हें वही गलती दोहराते हुए डर नहीं लगता?’ पासा उलटता और बात का रुख़ अपनी ओर मुड़ता देख फ्रोज का चेहरा एकदम उतर गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए? उसी पल पिजारो ने फ्रोज के कंधे पर हाथ रखा और बड़े प्यार से बोला, ‘मित्र, इस दुनिया में कायरों के लिए कहीं स्थान नहीं है क्योंकि ऐसी कोई जगह ही नहीं है जहां रिस्क ना हो। इसलिए अगर तुम ज़िंदगी के असली मज़े लेना चाहते हो, तो साहस के साथ प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करो।

    जी हाँ दोस्तों, बात तो एकदम सही है। इस दुनिया में ऐसी कोई चुनौती या परेशानी है ही नहीं, जिससे इंसान पार ना पा सके। बस ज़रूरत है तो आत्मविश्वास और हौसले की। याद रखियेगा, उपलब्धि जितनी बड़ी होगी; उसमें रिस्क या चुनौती भी उतनी ही बड़ी होगी। जब आप समस्याओं का सामना डट कर करते हैं तो वे छोटी हो जाती हैं और अगर आप उससे डर कर भागते हैं तो वो बड़ी हो जाती है। इसलिए अगर आप सफलता चाहते हैं तो हर स्थिति-परिस्थिति का सामना पूरे आत्मविश्वास, निडरता और हौसले के साथ डट कर करना शुरू कर दीजिए। वैसे भी वह सफलता ही क्या जो आसानी से मिल जाये। इसीलिए तो किसी ने क्या ख़ूब कहा है, ‘वह पथ क्या, पथिक कुशलता क्या, जिस पथ पर बिखरे शूल न हो… नाविक की धैर्य कुशलता क्या, जब धारायें प्रतिकूल न हो !!!
    दोस्तों, मेरी नज़र में रिस्क ना लेना ही जीवन की सबसे बड़ी रिस्क है। अपनी बात को मैं आपको एक क़िस्से से समझाने का प्रयास करता हूँ। वर्ष १४९२ में नाविकों के एक समूह ने बड़ी महत्वाकांक्षा के साथ एक साहसिक यात्रा करने का निर्णय लिया। नाविकों का पूरा का पूरा समूह इस साहसिक यात्रा के लिए काफ़ी उत्साहित और प्रसन्नचित्त था, सिवाय फ्रोज के, जो इस दुस्साहसी और ख़तरनाक यात्रा की योजना सुनकर ही बुरी तरह डर गया था। उसे लग रहा था कि अनावश्यक रूप से क्यों जीवन को मुश्किल में डालकर इस दुस्साहसी और ख़तरनाक यात्रा पर ज़ाया जाए? इसलिए उसने अन्य नाविकों के मन में भी समुद्री यात्रा के प्रति डर पैदा करने का निर्णय लिया। एक दिन फ्रोज की मुलाक़ात पिजारो से हो गई। अपनी योजना के मुताबिक़ फ्रोज ने पिजारो के मन में डर पैदा करने का निर्णय लिया और उससे पूछा, ‘मैंने सुना है तुम्हारे पिता एक बहुत ही अच्छे नाविक थे।’ पिजारो ने हाँ में सर हिलाया तो उसने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘फिर उनकी मृत्यु कैसे हुई थी?’ दुखी स्वर में पिजारो बोला, ‘एक समुद्री यात्रा के दौरान, असल में उनका जहाज़ एक भीषण समुद्री तूफ़ान के कारण दुर्घटनाग्रस्त हो गया था।’ फ्रोज ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘और तुम्हारे दादाजी की मृत्यु कैसे हुई थी?’ ‘मेरे दादा और परदादा दोनों भी समुद्र में डूबने के कारण मरे थे।’, पिजारो दुखी होते हुए बोला। इतना सुनते ही फ्रोज कुटिल हंसी हंसते हुए बोला, ‘हद है पिजारो। तुम अपने अतीत, अपने अनुभव से भी सीखने को तैयार नहीं हो। जब तुम्हारे परिवार में इतने सारे लोगों की मृत्यु समुद्र में डूबने के कारण हुई है, तो फिर तुम यह अनावश्यक रिस्क क्यों लेना चाहते हो? मुझे तो तुम्हारी बुद्धि पर तरस आ रहा है। इतना सब कुछ होने के बाद भी तुम सुधरने को राज़ी नहीं हो और इस दुस्साहसी और ख़तरनाक यात्रा के लिए हाँ कर अपने जीवन को मुश्किल में डाल रहे हो। इतना सुनते ही पिजारो समझ गया कि फ्रोज डर गया है और किसी ना किसी तरह यात्रा टालना चाहता है। उसने तुरंत ख़ुद को सँभालते हुए फ्रोज से पूछा, ‘अब तुम बताओ तुम्हारे पिता की मृत्यु कहाँ हुई थी?’ फ्रोज मुस्कुराते हुए बोला, ‘उन्होंने अपने बिस्तर पर बीड़ी आराम से अंतिम साँस ली थी।’ पिजारो ने फ्रोज को लगभग नज़रंदाज़ करते हुए अगला प्रश्न किया, ‘और तुम्हारे दादाजी की मृत्यु कैसे हुई थी?’ फ्रोज बड़े गर्व के साथ बोला, ‘प्रायः हमारे परिवार में सभी की मृत्यु अपने पलंग पर ही हुई है।’ शायद पिजारो इसी जवाब के इंतज़ार में था। उसने तुरंत गंभीर रुख़ अपनाते हुए कहा, ‘जब तुम्हारे सभी पूर्वज घर पर अपने बिस्तर पर आराम से मरे है, तो फिर तुम अपने घर जाने और बिस्तर पर सोने की मूर्खता क्यों करते हो? क्या तुम्हें वही गलती दोहराते हुए डर नहीं लगता?’ पासा उलटता और बात का रुख़ अपनी ओर मुड़ता देख फ्रोज का चेहरा एकदम उतर गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए? उसी पल पिजारो ने फ्रोज के कंधे पर हाथ रखा और बड़े प्यार से बोला, ‘मित्र, इस दुनिया में कायरों के लिए कहीं स्थान नहीं है क्योंकि ऐसी कोई जगह ही नहीं है जहां रिस्क ना हो। इसलिए अगर तुम ज़िंदगी के असली मज़े लेना चाहते हो, तो साहस के साथ प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करो। जी हाँ दोस्तों, बात तो एकदम सही है। इस दुनिया में ऐसी कोई चुनौती या परेशानी है ही नहीं, जिससे इंसान पार ना पा सके। बस ज़रूरत है तो आत्मविश्वास और हौसले की। याद रखियेगा, उपलब्धि जितनी बड़ी होगी; उसमें रिस्क या चुनौती भी उतनी ही बड़ी होगी। जब आप समस्याओं का सामना डट कर करते हैं तो वे छोटी हो जाती हैं और अगर आप उससे डर कर भागते हैं तो वो बड़ी हो जाती है। इसलिए अगर आप सफलता चाहते हैं तो हर स्थिति-परिस्थिति का सामना पूरे आत्मविश्वास, निडरता और हौसले के साथ डट कर करना शुरू कर दीजिए। वैसे भी वह सफलता ही क्या जो आसानी से मिल जाये। इसीलिए तो किसी ने क्या ख़ूब कहा है, ‘वह पथ क्या, पथिक कुशलता क्या, जिस पथ पर बिखरे शूल न हो… नाविक की धैर्य कुशलता क्या, जब धारायें प्रतिकूल न हो !!!
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