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मेरे पैर थक चुके हैं बाबुल
सौ गज के घर में घूमते-घूमते
एक कमरे से दूसरे कमरे के बीच की दुनिया
मुझे समेट रही है
हर काम एक दीवार से पहले
खत्म हो जाता है
अब साँझ चूल्हे के पास नहीं होती
अब ना तो वो हंसी ठहाके हैं
ना वो खेल तमाशे हैं
मैं फिर गाँव लौट आना चाहती हूँ
शहर के आजीवन कारावास से अब मुक्ति चाहती हूँ।
"मोरनी"
मेरे पैर थक चुके हैं बाबुल सौ गज के घर में घूमते-घूमते एक कमरे से दूसरे कमरे के बीच की दुनिया मुझे समेट रही है हर काम एक दीवार से पहले खत्म हो जाता है अब साँझ चूल्हे के पास नहीं होती अब ना तो वो हंसी ठहाके हैं ना वो खेल तमाशे हैं मैं फिर गाँव लौट आना चाहती हूँ शहर के आजीवन कारावास से अब मुक्ति चाहती हूँ। "मोरनी"
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