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अनकही सी चुभ रही जो
इस टीस का मैं क्या करूँ ...
पंखुरी सी झर रही जो
इस पीर का मैं क्या करूँ...
अधीर सी मचल रही जो
इस आस का मैं क्या करूँ...
विकल सी भटक रही जो
इस घुटन का मैं क्या करूँ...
स्तब्ध सी थम रही जो
इस कलम का मैं क्या करूँ... "मोरनी"
अनकही सी चुभ रही जो इस टीस का मैं क्या करूँ ... पंखुरी सी झर रही जो इस पीर का मैं क्या करूँ... अधीर सी मचल रही जो इस आस का मैं क्या करूँ... विकल सी भटक रही जो इस घुटन का मैं क्या करूँ... स्तब्ध सी थम रही जो इस कलम का मैं क्या करूँ... "मोरनी"
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