दोस्तों, कहते हैं ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना करते वक़्त इस ब्रह्मांड में सबसे पहले धरती का निर्माण किया। लेकिन पर्वत, खाई, मैदान, चट्टान, पत्थर आदि को जड़ देखते-देखते वे जल्द ही बोर हो गये। उन्होंने सोचा पृथ्वी थोड़ी रंग-बिरंगी होना चाहिये। यह विचार आते ही ब्रह्मा जी ने पेड़-पौधे, फल-फूल आदि की रचना की। लेकिन जल्द ही वे इससे भी बोर हो गये क्योंकि हर वस्तु अपने स्थान पर ही जड़ थी। इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने पशु-पक्षी आदि को इस धरती पर भेजा। अब ब्रह्मा जी अपनी इस रंग-बिरंगी, चलती-फिरती दुनिया को देख बड़े खुश थे। एक दिन उन्होंने सोचा क्यों न मैं अब ऐसे जीव की रचना करूँ जो स्वयं इस दुनिया को रोज़ आगे बढ़ा सके, कुछ न कुछ नया कर सके। विचार आते ही दोस्तों ब्रह्मा जी ने मनुष्यों की रचना करी।

कहते हैं ब्रह्मा जी को इस रचना के बाद कुछ और नया करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई क्योंकि उन्होंने इस इंसान रूपी जीव को देवताओं समान सभी शक्तियाँ दी थी। बस अंतर इतना था कि उन्होंने देवताओं की बात मान यह सभी शक्तियाँ सुप्त अवस्था में दी थी क्योंकि देवताओं को डर था कि अगर सभी मनुष्य अपनी शक्तियों को पहचान गये तो उन्हें कौन पूछेगा?

इसी कारण दोस्तों, आज तक इंसान अपनी शक्तियों को पहचान नहीं पाया है और मानव या इंसान के रूप में जन्म लेने के बाद भी वह कभी पत्थर, तो कभी वनस्पति, तो कभी जानवरों समान जीवन जीता है। याने कभी सिर्फ़ ख़ुद के लिये, तो कभी अपने परिवार, तो कभी चुने हुए समूह के लिये जीवन जीता है। इसीलिये साथियों मानव जन्म मिल जाना ही पर्याप्त नहीं है। जब तक आप मानव याने इंसान के रूप में जन्म लेने के बाद भी इंसानियत के साथ जीना नहीं सीख जाते हैं, तब तक अपनी शक्तियों को पहचान पाना मेरी नज़र में तो असंभव ही है।

उपरोक्त लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आपको जीवन जीने की कला सीखनी होगी। याद रखियेगा मैं, मेरा, मेरे अपने, मेरा धर्म आदि करने और इस आधार पर आनंद के साधन, सम्पति और पैसे जुटाने पर यह लक्ष्य नहीं मिलेगा। इसीलिये कहते हैं जीवन का असली आनंद और उद्देश्य साधन और संग्रह से नहीं, अपितु साधना से प्राप्त होता है। वैसे यह कला आप पशु-पक्षियों से भी सीख सकते हो। वे कभी भी, कुछ भी संग्रह नहीं करते, लेकिन फिर भी प्रकृति उन्हें जीवनोपयोगी सभी कुछ आवश्यक मात्रा में उपलब्ध करवा देती है।

दोस्तों, अगर आप वाक़ई अपनी असीम क्षमताओं का अनुभव करना चाहते हैं तो सर्वप्रथम अपने अंदर झाँकना शुरू कीजिए। याद रखियेगा, शक्तियाँ, आनंद और तृप्ति तीनों ही आपके भीतर है। इनका संबंध आपकी आत्मा से है ना की आपके मन से। मन आपको बाहरी दुनिया में उलझाकर रखेगा, उसे कितना भी क्यों ना मिल जाये, यह फिर भी अपूर्णता का एहसास करवायेगा। याद रखियेगा साथियों, जिसने ख़ुद को जान लिया, ख़ुद की शक्तियों को पहचान लिया, वो अपने भीतर झांक कर तृप्त हो जायेगा। उसे बाहरी अपूर्णताएँ कभी परेशान नहीं करेगी।

कहते हैं साथियों, ८४ लाख योनियों के बाद मनुष्य जन्म मिलता है अर्थात् यह ईश्वर का हमें दिया हुआ एक उपहार है और अगर यह वाक़ई उपहार है तो निश्चित तौर पर ईश्वर ने इसे आनन्दमय बनाया होगा। लेकिन हम बाहर देखने की अपनी आदत के कारण इच्छाओं, वासनाओं में उलझ जाते हैं और इसे कष्टप्रद और क्लेशमय बनाते हैं। तो आइये साथियों, आज से अपने जीवन को आनंदमयी बनाने के लिये सबसे पहले संग्रह करने को प्रवृति को छोड़ते हैं और अपने भीतर की यात्रा शुरू करते हैं। याद रखियेगा, जिसने इच्छाओं को छोड़कर, ख़ुद को पहचान लिया उसने आवश्यकताओं के आधार पर जीना सीख लिया और जिसने जीना सीख लिया, समझो उसने सुखमय जीवन का सूत्र समझ लिया।
दोस्तों, कहते हैं ब्रह्मा जी ने इस सृष्टि की रचना करते वक़्त इस ब्रह्मांड में सबसे पहले धरती का निर्माण किया। लेकिन पर्वत, खाई, मैदान, चट्टान, पत्थर आदि को जड़ देखते-देखते वे जल्द ही बोर हो गये। उन्होंने सोचा पृथ्वी थोड़ी रंग-बिरंगी होना चाहिये। यह विचार आते ही ब्रह्मा जी ने पेड़-पौधे, फल-फूल आदि की रचना की। लेकिन जल्द ही वे इससे भी बोर हो गये क्योंकि हर वस्तु अपने स्थान पर ही जड़ थी। इसके पश्चात् ब्रह्मा जी ने पशु-पक्षी आदि को इस धरती पर भेजा। अब ब्रह्मा जी अपनी इस रंग-बिरंगी, चलती-फिरती दुनिया को देख बड़े खुश थे। एक दिन उन्होंने सोचा क्यों न मैं अब ऐसे जीव की रचना करूँ जो स्वयं इस दुनिया को रोज़ आगे बढ़ा सके, कुछ न कुछ नया कर सके। विचार आते ही दोस्तों ब्रह्मा जी ने मनुष्यों की रचना करी। कहते हैं ब्रह्मा जी को इस रचना के बाद कुछ और नया करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई क्योंकि उन्होंने इस इंसान रूपी जीव को देवताओं समान सभी शक्तियाँ दी थी। बस अंतर इतना था कि उन्होंने देवताओं की बात मान यह सभी शक्तियाँ सुप्त अवस्था में दी थी क्योंकि देवताओं को डर था कि अगर सभी मनुष्य अपनी शक्तियों को पहचान गये तो उन्हें कौन पूछेगा? इसी कारण दोस्तों, आज तक इंसान अपनी शक्तियों को पहचान नहीं पाया है और मानव या इंसान के रूप में जन्म लेने के बाद भी वह कभी पत्थर, तो कभी वनस्पति, तो कभी जानवरों समान जीवन जीता है। याने कभी सिर्फ़ ख़ुद के लिये, तो कभी अपने परिवार, तो कभी चुने हुए समूह के लिये जीवन जीता है। इसीलिये साथियों मानव जन्म मिल जाना ही पर्याप्त नहीं है। जब तक आप मानव याने इंसान के रूप में जन्म लेने के बाद भी इंसानियत के साथ जीना नहीं सीख जाते हैं, तब तक अपनी शक्तियों को पहचान पाना मेरी नज़र में तो असंभव ही है। उपरोक्त लक्ष्य की प्राप्ति के लिये आपको जीवन जीने की कला सीखनी होगी। याद रखियेगा मैं, मेरा, मेरे अपने, मेरा धर्म आदि करने और इस आधार पर आनंद के साधन, सम्पति और पैसे जुटाने पर यह लक्ष्य नहीं मिलेगा। इसीलिये कहते हैं जीवन का असली आनंद और उद्देश्य साधन और संग्रह से नहीं, अपितु साधना से प्राप्त होता है। वैसे यह कला आप पशु-पक्षियों से भी सीख सकते हो। वे कभी भी, कुछ भी संग्रह नहीं करते, लेकिन फिर भी प्रकृति उन्हें जीवनोपयोगी सभी कुछ आवश्यक मात्रा में उपलब्ध करवा देती है। दोस्तों, अगर आप वाक़ई अपनी असीम क्षमताओं का अनुभव करना चाहते हैं तो सर्वप्रथम अपने अंदर झाँकना शुरू कीजिए। याद रखियेगा, शक्तियाँ, आनंद और तृप्ति तीनों ही आपके भीतर है। इनका संबंध आपकी आत्मा से है ना की आपके मन से। मन आपको बाहरी दुनिया में उलझाकर रखेगा, उसे कितना भी क्यों ना मिल जाये, यह फिर भी अपूर्णता का एहसास करवायेगा। याद रखियेगा साथियों, जिसने ख़ुद को जान लिया, ख़ुद की शक्तियों को पहचान लिया, वो अपने भीतर झांक कर तृप्त हो जायेगा। उसे बाहरी अपूर्णताएँ कभी परेशान नहीं करेगी। कहते हैं साथियों, ८४ लाख योनियों के बाद मनुष्य जन्म मिलता है अर्थात् यह ईश्वर का हमें दिया हुआ एक उपहार है और अगर यह वाक़ई उपहार है तो निश्चित तौर पर ईश्वर ने इसे आनन्दमय बनाया होगा। लेकिन हम बाहर देखने की अपनी आदत के कारण इच्छाओं, वासनाओं में उलझ जाते हैं और इसे कष्टप्रद और क्लेशमय बनाते हैं। तो आइये साथियों, आज से अपने जीवन को आनंदमयी बनाने के लिये सबसे पहले संग्रह करने को प्रवृति को छोड़ते हैं और अपने भीतर की यात्रा शुरू करते हैं। याद रखियेगा, जिसने इच्छाओं को छोड़कर, ख़ुद को पहचान लिया उसने आवश्यकताओं के आधार पर जीना सीख लिया और जिसने जीना सीख लिया, समझो उसने सुखमय जीवन का सूत्र समझ लिया।
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