दोस्तों, आपसी रिश्ते में आप सही हैं यह सिद्ध करना ज़्यादा ज़रूरी है या रिश्तों का मज़बूत और भावनाओं से भरा होना? मेरी नज़र में तो रिश्तों का मज़बूत और भावनाओं से भरा होना ही सबसे ज़रूरी है। लेकिन अगर आप अपने आसपास याने समाज में नज़र घूमाकर देखेंगे तो ठीक इसका विपरीत पायेंगे। जी हाँ साथियों, आजकल ‘क्या’ से ज़्यादा ‘मैं’ सही हूँ का भाव मनुष्य के अंदर अहंकार के भाव को बढ़ाकर रिश्तों को नुक़सान पहुँचा रहा है जो प्रेम के नियम के बिलकुल विपरीत है। अपनी बात को मैं आपको एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ।

कुछ दिन पूर्व मेरे पास एक परिचित का फ़ोन आया जो अपनी बेटी की काउन्सलिंग मुझसे करवाना चाहते थे, जो पारिवारिक कलह के कारण अपने पति से अलग रह रही थी। जब सामान्य बातचीत के बाद मैंने उन्हें समस्या को विस्तार से बताने को कहा तो वे बोली, ‘सर, मेरे पति बात-बात पर मेरी और मेरे परिवार की तुलना किसी न किसी के साथ करते रहते हैं और हर बार मुझे नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। मैं कोई अनपढ़ गंवार नहीं हूँ, मैंने भी एमबीए तक शिक्षा ली है और उनसे ज़्यादा बेहतर काम कर रही हूँ, उनसे ज्यादा कमा रही हूँ।’

ससुराल पक्ष से परिचित होने के कारण मैंने तत्काल कोई सुझाव या प्रतिक्रिया देने के स्थान पर अन्य रिश्तेदारों से भी चर्चा करने का निर्णय लिया जिससे मैं स्थिति का सही-सही आकलन कर सकूँ। अंत में मित्र से चर्चा करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि पति-पत्नी के रिश्ते में खटास की मुख्य वजह विभिन्न कारणों से उपजा अहंकार ही था। ऐसी स्थिति में सामान्यतः मेरा प्रश्न बड़ा सपाट रहता है, ‘क्या आप लोगों के बीच थोड़ा भी प्रेम बाक़ी है और क्या आप अपनी बची हुई ज़िंदगी साथ गुज़ारना चाहते हैं? अगर नहीं तो बेहतर है आप आज ही अलग हो जायें क्योंकि रोज़-रोज़ मरकर जीने का क्या फ़ायदा।’

दोस्तों, हो सकता है आपको मेरा प्रश्न थोड़ा सपाट और अटपटा लग रहा होगा। लेकिन उपरोक्त स्थिति के हिसाब से; है बिलकुल सही, क्योंकि रिश्तों को अहंकार याने बल से नहीं, प्रेम से ही जीता जा सकता है। आप ख़ुद सोच कर देखिये क्या हम अपनों को नीचा दिखाकर, उन्हें हराकर जीत सकते हैं? मेरी नज़र में तो बिलकुल भी नहीं और ऐसा ही तो उपरोक्त रिश्ते में हो रहा था। दोस्तों, अगर आपके लिये रिश्ता महत्वपूर्ण है तो अपनों से हारने में क्या नुक़सान? याद रखियेगा, ऐसा करके याने हारकर भी आप अंत में उनका दिल जीत लेते हैं।

दोस्तों, वर्तमान समय में समाज की स्थिति रिश्तों को लेकर वाक़ई चिन्तनीय है। आज घर-परिवार, रिश्तों या समाज में हर कोई सुनाने के लिये तैयार है लेकिन सुनने के लिये नहीं। जो कहीं से भी रिश्तों की गर्माहट याने भावनात्मकता को बचाये रखने में मदद नहीं करता है। उसके लिये तो आपको सुनाने की नहीं अपितु आवश्यकता पड़ने पर सुनने की आदत भी डालना पड़ेगी। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि आप ग़लत हैं या आपको सही बात का भान नहीं है। आपने तो बस ख़ुद को सही साबित कर परिवार को अशांत बनाने के स्थान पर अपनों के सामने झुककर रिश्ते में प्रेम, समर्पण और अपनेपन को प्राथमिकता दी है।

जी हाँ साथियों, सही होते हुए भी कभी-कभी चुप रहकर सुन लेना कोई अपराध नहीं है। यह तो पारिवारिक शांति बरक़रार रखने के लिये आपके द्वारा चेतनापूर्ण अवस्था में रिश्तों की बेहतरी के लिये उठाया गया एक कदम है। क्योंकि आप जानते हैं कि ज़िंदगी का असली मज़ा इसमें नहीं है कि आप स्वयं कितने खुश हैं बल्कि इसमें है कि आपसे, आपके अपने लोग कितने खुश हैं। वैसे भी साथियों, जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वही बुद्धिमान है।
दोस्तों, आपसी रिश्ते में आप सही हैं यह सिद्ध करना ज़्यादा ज़रूरी है या रिश्तों का मज़बूत और भावनाओं से भरा होना? मेरी नज़र में तो रिश्तों का मज़बूत और भावनाओं से भरा होना ही सबसे ज़रूरी है। लेकिन अगर आप अपने आसपास याने समाज में नज़र घूमाकर देखेंगे तो ठीक इसका विपरीत पायेंगे। जी हाँ साथियों, आजकल ‘क्या’ से ज़्यादा ‘मैं’ सही हूँ का भाव मनुष्य के अंदर अहंकार के भाव को बढ़ाकर रिश्तों को नुक़सान पहुँचा रहा है जो प्रेम के नियम के बिलकुल विपरीत है। अपनी बात को मैं आपको एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ। कुछ दिन पूर्व मेरे पास एक परिचित का फ़ोन आया जो अपनी बेटी की काउन्सलिंग मुझसे करवाना चाहते थे, जो पारिवारिक कलह के कारण अपने पति से अलग रह रही थी। जब सामान्य बातचीत के बाद मैंने उन्हें समस्या को विस्तार से बताने को कहा तो वे बोली, ‘सर, मेरे पति बात-बात पर मेरी और मेरे परिवार की तुलना किसी न किसी के साथ करते रहते हैं और हर बार मुझे नीचा दिखाने का प्रयास करते हैं। मैं कोई अनपढ़ गंवार नहीं हूँ, मैंने भी एमबीए तक शिक्षा ली है और उनसे ज़्यादा बेहतर काम कर रही हूँ, उनसे ज्यादा कमा रही हूँ।’ ससुराल पक्ष से परिचित होने के कारण मैंने तत्काल कोई सुझाव या प्रतिक्रिया देने के स्थान पर अन्य रिश्तेदारों से भी चर्चा करने का निर्णय लिया जिससे मैं स्थिति का सही-सही आकलन कर सकूँ। अंत में मित्र से चर्चा करने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि पति-पत्नी के रिश्ते में खटास की मुख्य वजह विभिन्न कारणों से उपजा अहंकार ही था। ऐसी स्थिति में सामान्यतः मेरा प्रश्न बड़ा सपाट रहता है, ‘क्या आप लोगों के बीच थोड़ा भी प्रेम बाक़ी है और क्या आप अपनी बची हुई ज़िंदगी साथ गुज़ारना चाहते हैं? अगर नहीं तो बेहतर है आप आज ही अलग हो जायें क्योंकि रोज़-रोज़ मरकर जीने का क्या फ़ायदा।’ दोस्तों, हो सकता है आपको मेरा प्रश्न थोड़ा सपाट और अटपटा लग रहा होगा। लेकिन उपरोक्त स्थिति के हिसाब से; है बिलकुल सही, क्योंकि रिश्तों को अहंकार याने बल से नहीं, प्रेम से ही जीता जा सकता है। आप ख़ुद सोच कर देखिये क्या हम अपनों को नीचा दिखाकर, उन्हें हराकर जीत सकते हैं? मेरी नज़र में तो बिलकुल भी नहीं और ऐसा ही तो उपरोक्त रिश्ते में हो रहा था। दोस्तों, अगर आपके लिये रिश्ता महत्वपूर्ण है तो अपनों से हारने में क्या नुक़सान? याद रखियेगा, ऐसा करके याने हारकर भी आप अंत में उनका दिल जीत लेते हैं। दोस्तों, वर्तमान समय में समाज की स्थिति रिश्तों को लेकर वाक़ई चिन्तनीय है। आज घर-परिवार, रिश्तों या समाज में हर कोई सुनाने के लिये तैयार है लेकिन सुनने के लिये नहीं। जो कहीं से भी रिश्तों की गर्माहट याने भावनात्मकता को बचाये रखने में मदद नहीं करता है। उसके लिये तो आपको सुनाने की नहीं अपितु आवश्यकता पड़ने पर सुनने की आदत भी डालना पड़ेगी। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि आप ग़लत हैं या आपको सही बात का भान नहीं है। आपने तो बस ख़ुद को सही साबित कर परिवार को अशांत बनाने के स्थान पर अपनों के सामने झुककर रिश्ते में प्रेम, समर्पण और अपनेपन को प्राथमिकता दी है। जी हाँ साथियों, सही होते हुए भी कभी-कभी चुप रहकर सुन लेना कोई अपराध नहीं है। यह तो पारिवारिक शांति बरक़रार रखने के लिये आपके द्वारा चेतनापूर्ण अवस्था में रिश्तों की बेहतरी के लिये उठाया गया एक कदम है। क्योंकि आप जानते हैं कि ज़िंदगी का असली मज़ा इसमें नहीं है कि आप स्वयं कितने खुश हैं बल्कि इसमें है कि आपसे, आपके अपने लोग कितने खुश हैं। वैसे भी साथियों, जो टूटे को बनाना और रूठे को मनाना जानता है, वही बुद्धिमान है।
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