दोस्तों, इस दुनिया में और ज़्यादा पाने की लालसा एक ऐसा भाव है जो अक्सर आपके पास जो होता है उसका सुख भोगने से वंचित कर देता है और आपको हमेशा अधूरेपन के भाव के साथ जीने के लिये मजबूर करता है। अपनी बात को मैं हाल ही में घटी एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ। कुछ माह पूर्व मध्यप्रदेश के एक छोटे से क़स्बे में मेरी मुलाक़ात एक बुजुर्ग सज्जन से उस वक़्त हुई जब मैं एक विद्यालय संचालक के साथ कुछ चर्चा कर रहा था। बातचीत के तौर-तरीक़े और देखने में वे बुजुर्ग सज्जन बड़े सभ्रांत, गंभीर, ज्ञानी लेकिन परिस्थिति के मारे, बेचैन और दुखी प्रतीत हो रहे थे। उनके जाने के पश्चात जब मैंने उनके विषय में स्कूल संचालक से बात करी तो उन्होंने बताया कि वे प्राचार्य के लिये किराए पर लिये गये घर के मालिक हैं और पारिस्थितिक कारणों से आजकल भावनात्मक और मानसिक परेशानियों के साथ-साथ आर्थिक तंगी के दौर से भी गुजर रहे हैं।

व्यक्तिगत तौर पर मुझे उनके विषय में सुनकर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा और मैं सोचने लगा कि पूरे जीवन की कमाई जिस घर को बनाने में लगाई उसी घर के मज़े वे जीवन के इस पड़ाव पर नहीं ले पा रहे हैं और तमाम दिक़्क़तों के दौर से गुजर रहे हैं। ख़ैर, उस वक़्त तो मैं ऐसे कई विचार मन में लिये वापस अपने शहर आ गया और अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। एक सप्ताह पूर्व मुझे यह घटना एक बार फिर दुबारा याद आई जब इंदौर में मेरी मुलाक़ात एक बार फिर उसी विद्यालय के संचालक से हो गई। सामान्य बातचीत के बाद मैंने उत्सुकतावश जब उन बुजुर्ग व्यक्ति के हालचाल पूछे तो मैं यह जानकर अचंभित रह गया कि कुछ दिन पूर्व वे ब्रह्मलीन हो गये।

कुछ पलों के लिये तो मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं किस तरह रिएक्ट करूँ। कुछ पलों पश्चात अचानक ही मेरे मुँह से निकाला, ‘चलो अच्छा हुआ, वे सारी परेशानियों से आज़ाद हो गये।’ मेरी बात सुनते ही विद्यालय संचालक हल्के से मुस्कुरा दिये, जो मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा। मैंने संचालक महोदय को उन बुजुर्ग सज्जन की परेशानी याद दिलाते हुए टोका तो वे माफ़ी माँगते हुए बोले, ‘सर, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उनकी मृत्यु के बाद हमें पता चला कि उनके पास दो करोड़ से ज़्यादा की फ़िक्स्ड डिपोजिट याने एफ़डी थी। इतना पैसा होने के बाद भी वे अक्सर छोटी-छोटी चीजों के लिये परेशान रहते थे।’

दोस्तों, उन सज्जन के इस तरह अचानक से जाने का दुख तो मुझे भी था लेकिन साथ ही मेरे मन में पहला विचार आया कि विवेक और आत्मसंतुष्टि के बिना इस दुनिया में अमीर आदमी भी उतना ही दुखी, परेशान, निराश और हताश हो सकता है, जितना एक निर्धन व्यक्ति अपनी न्यूनतम ज़रूरतों को पुरा ना कर पाने की स्थिति में और हाँ इसके ठीक विपरीत सोचना ग़रीब से ग़रीब इंसान को भी उतना सुखी बना सकता है, जितना कोई धनवान हो सकता है। इसका अर्थ हुआ जीवन में आंतरिक समझ याने अंतर्दृष्टि का होना सुखी रहने के लिये आवश्यक है।

जी हाँ साथियों, सुख और दुख का असली पैमाना हमारी दौलत, शोहरत या भोग-विलास की बड़ी-बड़ी वस्तुएँ नहीं है वह तो सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारी आंतरिक प्रसन्नता ही है। इसलिये पैसे, प्रॉपर्टी, संसाधन याने भौतिक सुखों के साधनों के आधार पर किसी की सफलता का मूल्यांकन करना कहीं से भी उचित नहीं है। अगर आप मेरी बात से सहमत न हों, तो न्यूट्रल रहकर अपने आस-पास मौजूद लोगों को थोड़ा ध्यान से देख लीजियेगा। आपको निश्चित तौर पर ऐसे लोग मिल जाएँगे, जो ढेर सारा धन संग्रहित करने के बाद भी रो रहे हैं और कुछ लोग थोड़ा सा होने के बाद भी बाँट कर खुश हैं। अर्थात् जो थोड़ा बहुत है उसे मिल-बाँट कर भी खुश और मुस्कुराते हुए अपना जीवन जी रहे हैं।

इस आधार पर कहा जाये तो आपने जीवनकाल में कितना कमाया और इकट्ठा किया से ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आप कितने तृप्त रहे। अर्थात् ज़्यादातर लोगों की परेशानी का कारण धन नहीं मन है। याद रखियेगा साथियों, अगर समय के साथ सही सोच विकसित नहीं कर पाये तो आप अच्छे ख़ासे जीवन को अपने लिये बोझ बना लेंगे। इसलिये मेरा मानना है सुखी जीवन जीने के लिये जितना आवश्यक धन कमाना है उतना ही आवश्यक सही समय पर सही सोच को विकसित करना है। एक बार विचार कर देखियेगा ज़रूर…
दोस्तों, इस दुनिया में और ज़्यादा पाने की लालसा एक ऐसा भाव है जो अक्सर आपके पास जो होता है उसका सुख भोगने से वंचित कर देता है और आपको हमेशा अधूरेपन के भाव के साथ जीने के लिये मजबूर करता है। अपनी बात को मैं हाल ही में घटी एक घटना से समझाने का प्रयास करता हूँ। कुछ माह पूर्व मध्यप्रदेश के एक छोटे से क़स्बे में मेरी मुलाक़ात एक बुजुर्ग सज्जन से उस वक़्त हुई जब मैं एक विद्यालय संचालक के साथ कुछ चर्चा कर रहा था। बातचीत के तौर-तरीक़े और देखने में वे बुजुर्ग सज्जन बड़े सभ्रांत, गंभीर, ज्ञानी लेकिन परिस्थिति के मारे, बेचैन और दुखी प्रतीत हो रहे थे। उनके जाने के पश्चात जब मैंने उनके विषय में स्कूल संचालक से बात करी तो उन्होंने बताया कि वे प्राचार्य के लिये किराए पर लिये गये घर के मालिक हैं और पारिस्थितिक कारणों से आजकल भावनात्मक और मानसिक परेशानियों के साथ-साथ आर्थिक तंगी के दौर से भी गुजर रहे हैं। व्यक्तिगत तौर पर मुझे उनके विषय में सुनकर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा और मैं सोचने लगा कि पूरे जीवन की कमाई जिस घर को बनाने में लगाई उसी घर के मज़े वे जीवन के इस पड़ाव पर नहीं ले पा रहे हैं और तमाम दिक़्क़तों के दौर से गुजर रहे हैं। ख़ैर, उस वक़्त तो मैं ऐसे कई विचार मन में लिये वापस अपने शहर आ गया और अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो गया। एक सप्ताह पूर्व मुझे यह घटना एक बार फिर दुबारा याद आई जब इंदौर में मेरी मुलाक़ात एक बार फिर उसी विद्यालय के संचालक से हो गई। सामान्य बातचीत के बाद मैंने उत्सुकतावश जब उन बुजुर्ग व्यक्ति के हालचाल पूछे तो मैं यह जानकर अचंभित रह गया कि कुछ दिन पूर्व वे ब्रह्मलीन हो गये। कुछ पलों के लिये तो मुझे समझ ही नहीं आया कि मैं किस तरह रिएक्ट करूँ। कुछ पलों पश्चात अचानक ही मेरे मुँह से निकाला, ‘चलो अच्छा हुआ, वे सारी परेशानियों से आज़ाद हो गये।’ मेरी बात सुनते ही विद्यालय संचालक हल्के से मुस्कुरा दिये, जो मुझे बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा। मैंने संचालक महोदय को उन बुजुर्ग सज्जन की परेशानी याद दिलाते हुए टोका तो वे माफ़ी माँगते हुए बोले, ‘सर, आपको जानकर आश्चर्य होगा कि उनकी मृत्यु के बाद हमें पता चला कि उनके पास दो करोड़ से ज़्यादा की फ़िक्स्ड डिपोजिट याने एफ़डी थी। इतना पैसा होने के बाद भी वे अक्सर छोटी-छोटी चीजों के लिये परेशान रहते थे।’ दोस्तों, उन सज्जन के इस तरह अचानक से जाने का दुख तो मुझे भी था लेकिन साथ ही मेरे मन में पहला विचार आया कि विवेक और आत्मसंतुष्टि के बिना इस दुनिया में अमीर आदमी भी उतना ही दुखी, परेशान, निराश और हताश हो सकता है, जितना एक निर्धन व्यक्ति अपनी न्यूनतम ज़रूरतों को पुरा ना कर पाने की स्थिति में और हाँ इसके ठीक विपरीत सोचना ग़रीब से ग़रीब इंसान को भी उतना सुखी बना सकता है, जितना कोई धनवान हो सकता है। इसका अर्थ हुआ जीवन में आंतरिक समझ याने अंतर्दृष्टि का होना सुखी रहने के लिये आवश्यक है। जी हाँ साथियों, सुख और दुख का असली पैमाना हमारी दौलत, शोहरत या भोग-विलास की बड़ी-बड़ी वस्तुएँ नहीं है वह तो सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारी आंतरिक प्रसन्नता ही है। इसलिये पैसे, प्रॉपर्टी, संसाधन याने भौतिक सुखों के साधनों के आधार पर किसी की सफलता का मूल्यांकन करना कहीं से भी उचित नहीं है। अगर आप मेरी बात से सहमत न हों, तो न्यूट्रल रहकर अपने आस-पास मौजूद लोगों को थोड़ा ध्यान से देख लीजियेगा। आपको निश्चित तौर पर ऐसे लोग मिल जाएँगे, जो ढेर सारा धन संग्रहित करने के बाद भी रो रहे हैं और कुछ लोग थोड़ा सा होने के बाद भी बाँट कर खुश हैं। अर्थात् जो थोड़ा बहुत है उसे मिल-बाँट कर भी खुश और मुस्कुराते हुए अपना जीवन जी रहे हैं। इस आधार पर कहा जाये तो आपने जीवनकाल में कितना कमाया और इकट्ठा किया से ज़्यादा महत्वपूर्ण यह है कि आप कितने तृप्त रहे। अर्थात् ज़्यादातर लोगों की परेशानी का कारण धन नहीं मन है। याद रखियेगा साथियों, अगर समय के साथ सही सोच विकसित नहीं कर पाये तो आप अच्छे ख़ासे जीवन को अपने लिये बोझ बना लेंगे। इसलिये मेरा मानना है सुखी जीवन जीने के लिये जितना आवश्यक धन कमाना है उतना ही आवश्यक सही समय पर सही सोच को विकसित करना है। एक बार विचार कर देखियेगा ज़रूर…
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