आइये साथियों, आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। गौतम बुद्ध से दीक्षित होकर एक राजकुमार, भिक्षुक के रूप में अपना नया जीवन शुरू करने ही वाला था कि एक दिन गौतम बुद्ध ने उसे अपनी एक शिष्या के घर से भिक्षा लाने का कहा। भिक्षा लेने के लिये जाते वक़्त उसके मन में ख़याल आया कि अब तो मुझे अपना प्रिय भोजन शायद ही कभी खाने के लिए मिलेगा। लेकिन जैसे ही वह शिष्या के घर पहुँचा तो वहाँ उसने पूरा भोजन अपनी पसंद का पाया। वह शुरू में तो बहुत हैरान हुआ लेकिन जल्द ही सोचने लगा कि शायद संयोगवश ऐसा हो गया होगा। उसने भरपेट भोजन करा और सोचने लगा कि पहले तो मैं रोज़ भोजन के पश्चात कुछ देर आराम किया करता था लेकिन आज तो मुझे धूप में ही वापस जाना पड़ेगा। जिस पल उसके मन में यह विचार था उसी समय वह शिष्या बोली, ‘भिक्षु अगर आप मेरे यहाँ दो घड़ी विश्राम कर लेंगे तो बड़ी अनुकंपा होगी।’ इतना सुनते ही भिक्षुक चौंक गया और सोचने लगा कि मेरे मन की बात इसे कैसे पता चल रही है? फिर अगले ही पल ख़ुद को समझाने लगा कि संयोगवश उसने ऐसा कह दिया होगा।

अगले ही पल भिक्षु उस शिष्या की बिछाई चटाई पर लेट गया और सोचने लगा, ‘अब ना तो कोई अपना ठिकाना है और ना ही कोई बिछौना। अब तो बस रोज़ आकाश अपना छप्पर है और ज़मीन बिछौना।’ उसके इतना सोचते ही वह शिष्या बोली, ‘आप ऐसा क्यों सोचते हैं?’ उसके इतना कहते ही भिक्षुक चौंक कर बैठ गये और बोले, ‘क्या मेरे विचार आप तक पहुँच रहे हैं?’ मुस्कुराते हुए शिष्या बोली, ‘निश्चित ही!’ उसके इतना कहते ही भिक्षुक की हालत पतली हो गई। उसके मन में एक ही पल में अभी तक सोची गई हर बात घूम गई।वह भिक्षुक घबरा कर खड़ा हो गया और काँपते हुए बोला, ‘कृपया मुझे आज्ञा दें।’ शिष्या मुस्कुराई और बोली, ‘आप इतना घबरा क्यों रहे हैं? यह सब तो सामान्य है।’ इतना सुनते ही भिक्षुक बिना कुछ कहे वहाँ से लौट गया और आश्रम पहुँचते ही बुद्ध से बोला, ‘महात्मन, क्षमा करें, अब मैं कभी उस द्वार भिक्षा माँगने जा ना सकूँगा।’ बुद्ध पूर्ण गंभीरता के साथ बोले, ‘क्यों? ऐसा क्या हो गया? उनसे कुछ चूक हो गई क्या?’

इतना सुनते ही भिक्षुक बोला, ‘नहीं-नहीं ऐसा तो वहाँ कुछ नहीं हुआ। उन्होंने तो बल्कि बहुत आदर पूर्वक बहुत स्वादिष्ट भोजन करवाया और साथ ही भोजन पश्चात आराम करने की व्यवस्था भी करी। बस समस्या इतनी सी है कि वह युवती दूसरों के मन के विचार पढ़ लेती है। यह बहुत ख़तरनाक बात है क्योंकि उस सुंदर युवती को देख मेरे मन में कामवासना भी उठी थी और साथ ही विकार भी उठा था। निश्चित तौर पर उसने इन विचारों को भी पढ़ लिया होगा। अब मैं किस मुँह से उसके सामने जाऊँ? क्षमा करें गुरुदेव अब मैं उसके यहाँ नहीं जा पाऊँगा।’ इतना सुनते ही बुद्ध पूर्ण गंभीर हो गये और बोले, ‘वहीं जाना पड़ेगा वत्स क्योंकि अगर इस तरह क्षमा माँगनी थी तो भिक्षुक नहीं बनना था। मैंने तुम्हें वहाँ जान कर भेजा था। अब जब तक मैं मना ना कर दूँ तब तक तुम्हें वहाँ रोज़ जाना पड़ेगा। यही तुम्हारी असली साधना होगी। वहाँ जाते वक़्त बस होश में रहना, भीतर से भी जागे हुए रहना और देखते हुए जाना कि रास्ते में कौन से विचार उठ रहे हैं। उन विचारों से लड़ना मत… उन्हें रोकना भी मत… बल्कि मैं तो कहूँगा, कुछ करना भी मत… बस जागे रहना और देखते रहना कि भीतर क्या उठ रहा है और क्या नहीं।’

अगले दिन उस भिक्षुक को पहले से ही संभावित ख़तरे का अंदेशा था। उसे पता था कि मन में एक भी ग़लत विचार आया तो वह शिक्षिका सब पढ़ लेगी। इसलिए आज वह पूरी तरह अंदर और बाहर दोनों जगह से जागा हुआ चल रहा था। आज असल में वह पूरी तरह होश में था। उसे आज विचारों के साथ-साथ आती जाती स्वाँस भी महसूस हो रही थी और यह स्थिति धीरे-धीरे उसे पूर्ण शांति की ओर ले जा रही थी। इसीलिये शिष्या के घर पहुँचने के बाद, भोजन और भोजन पश्चात आराम के दौरान भी वह अंदर से पूरी तरह शांत था। उस दिन भिक्षा के पश्चात वह भिक्षुक नाचता हुआ वापस लौटा।

जानते हैं क्यों दोस्तों? क्योंकि अंदर से जागा हुआ रहने के कारण आज उसके अंदर कोई विचार, वासना या इच्छा नहीं थी। उसका मन पूरी तरह शांत था, उसके अंदर कुछ भी नहीं था क्योंकि आज उसकी सभी इंद्रियाँ उसके वश में थी। दोस्तों, जिस दिन आप पूरी तरह अंदर और बाहर, दोनों तरीक़े से, जागृत रहते हुए जीना सीख जाते हैं, उसी दिन आपके जीवन के सारे क्लेश मिट जाते हैं और आप विवेक पूर्ण जीवन जीना शुरू कर देते हैं। इसे ही साथियों चैतन्य अवस्था में जीना कहा जाता है। आइये, आज से ही हम सभी इसे अपने जीवन में उतारते हैं क्योंकि शांत, संतुष्ट, खुश रहते हुए जीवन जीने का यही एकमात्र तरीक़ा है।
आइये साथियों, आज के लेख की शुरुआत एक कहानी से करते हैं। गौतम बुद्ध से दीक्षित होकर एक राजकुमार, भिक्षुक के रूप में अपना नया जीवन शुरू करने ही वाला था कि एक दिन गौतम बुद्ध ने उसे अपनी एक शिष्या के घर से भिक्षा लाने का कहा। भिक्षा लेने के लिये जाते वक़्त उसके मन में ख़याल आया कि अब तो मुझे अपना प्रिय भोजन शायद ही कभी खाने के लिए मिलेगा। लेकिन जैसे ही वह शिष्या के घर पहुँचा तो वहाँ उसने पूरा भोजन अपनी पसंद का पाया। वह शुरू में तो बहुत हैरान हुआ लेकिन जल्द ही सोचने लगा कि शायद संयोगवश ऐसा हो गया होगा। उसने भरपेट भोजन करा और सोचने लगा कि पहले तो मैं रोज़ भोजन के पश्चात कुछ देर आराम किया करता था लेकिन आज तो मुझे धूप में ही वापस जाना पड़ेगा। जिस पल उसके मन में यह विचार था उसी समय वह शिष्या बोली, ‘भिक्षु अगर आप मेरे यहाँ दो घड़ी विश्राम कर लेंगे तो बड़ी अनुकंपा होगी।’ इतना सुनते ही भिक्षुक चौंक गया और सोचने लगा कि मेरे मन की बात इसे कैसे पता चल रही है? फिर अगले ही पल ख़ुद को समझाने लगा कि संयोगवश उसने ऐसा कह दिया होगा। अगले ही पल भिक्षु उस शिष्या की बिछाई चटाई पर लेट गया और सोचने लगा, ‘अब ना तो कोई अपना ठिकाना है और ना ही कोई बिछौना। अब तो बस रोज़ आकाश अपना छप्पर है और ज़मीन बिछौना।’ उसके इतना सोचते ही वह शिष्या बोली, ‘आप ऐसा क्यों सोचते हैं?’ उसके इतना कहते ही भिक्षुक चौंक कर बैठ गये और बोले, ‘क्या मेरे विचार आप तक पहुँच रहे हैं?’ मुस्कुराते हुए शिष्या बोली, ‘निश्चित ही!’ उसके इतना कहते ही भिक्षुक की हालत पतली हो गई। उसके मन में एक ही पल में अभी तक सोची गई हर बात घूम गई।वह भिक्षुक घबरा कर खड़ा हो गया और काँपते हुए बोला, ‘कृपया मुझे आज्ञा दें।’ शिष्या मुस्कुराई और बोली, ‘आप इतना घबरा क्यों रहे हैं? यह सब तो सामान्य है।’ इतना सुनते ही भिक्षुक बिना कुछ कहे वहाँ से लौट गया और आश्रम पहुँचते ही बुद्ध से बोला, ‘महात्मन, क्षमा करें, अब मैं कभी उस द्वार भिक्षा माँगने जा ना सकूँगा।’ बुद्ध पूर्ण गंभीरता के साथ बोले, ‘क्यों? ऐसा क्या हो गया? उनसे कुछ चूक हो गई क्या?’ इतना सुनते ही भिक्षुक बोला, ‘नहीं-नहीं ऐसा तो वहाँ कुछ नहीं हुआ। उन्होंने तो बल्कि बहुत आदर पूर्वक बहुत स्वादिष्ट भोजन करवाया और साथ ही भोजन पश्चात आराम करने की व्यवस्था भी करी। बस समस्या इतनी सी है कि वह युवती दूसरों के मन के विचार पढ़ लेती है। यह बहुत ख़तरनाक बात है क्योंकि उस सुंदर युवती को देख मेरे मन में कामवासना भी उठी थी और साथ ही विकार भी उठा था। निश्चित तौर पर उसने इन विचारों को भी पढ़ लिया होगा। अब मैं किस मुँह से उसके सामने जाऊँ? क्षमा करें गुरुदेव अब मैं उसके यहाँ नहीं जा पाऊँगा।’ इतना सुनते ही बुद्ध पूर्ण गंभीर हो गये और बोले, ‘वहीं जाना पड़ेगा वत्स क्योंकि अगर इस तरह क्षमा माँगनी थी तो भिक्षुक नहीं बनना था। मैंने तुम्हें वहाँ जान कर भेजा था। अब जब तक मैं मना ना कर दूँ तब तक तुम्हें वहाँ रोज़ जाना पड़ेगा। यही तुम्हारी असली साधना होगी। वहाँ जाते वक़्त बस होश में रहना, भीतर से भी जागे हुए रहना और देखते हुए जाना कि रास्ते में कौन से विचार उठ रहे हैं। उन विचारों से लड़ना मत… उन्हें रोकना भी मत… बल्कि मैं तो कहूँगा, कुछ करना भी मत… बस जागे रहना और देखते रहना कि भीतर क्या उठ रहा है और क्या नहीं।’ अगले दिन उस भिक्षुक को पहले से ही संभावित ख़तरे का अंदेशा था। उसे पता था कि मन में एक भी ग़लत विचार आया तो वह शिक्षिका सब पढ़ लेगी। इसलिए आज वह पूरी तरह अंदर और बाहर दोनों जगह से जागा हुआ चल रहा था। आज असल में वह पूरी तरह होश में था। उसे आज विचारों के साथ-साथ आती जाती स्वाँस भी महसूस हो रही थी और यह स्थिति धीरे-धीरे उसे पूर्ण शांति की ओर ले जा रही थी। इसीलिये शिष्या के घर पहुँचने के बाद, भोजन और भोजन पश्चात आराम के दौरान भी वह अंदर से पूरी तरह शांत था। उस दिन भिक्षा के पश्चात वह भिक्षुक नाचता हुआ वापस लौटा। जानते हैं क्यों दोस्तों? क्योंकि अंदर से जागा हुआ रहने के कारण आज उसके अंदर कोई विचार, वासना या इच्छा नहीं थी। उसका मन पूरी तरह शांत था, उसके अंदर कुछ भी नहीं था क्योंकि आज उसकी सभी इंद्रियाँ उसके वश में थी। दोस्तों, जिस दिन आप पूरी तरह अंदर और बाहर, दोनों तरीक़े से, जागृत रहते हुए जीना सीख जाते हैं, उसी दिन आपके जीवन के सारे क्लेश मिट जाते हैं और आप विवेक पूर्ण जीवन जीना शुरू कर देते हैं। इसे ही साथियों चैतन्य अवस्था में जीना कहा जाता है। आइये, आज से ही हम सभी इसे अपने जीवन में उतारते हैं क्योंकि शांत, संतुष्ट, खुश रहते हुए जीवन जीने का यही एकमात्र तरीक़ा है।
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