दोस्तों, इस दुनिया में ज़्यादातर लोग ग़ुलामी वाला जीवन जी रहे हैं। सुनने में थोड़ा अटपटा लग रहा है ना? लेकिन यक़ीन मानियेगा बात जो मैं कह रहा हूँ, है बिलकुल सच। अगर सहमत ना हों तो ज़रा अपनी प्राथमिकताओं, आदतों और फिर दिनचर्या को बारीकी से देख लें। अभी भी स्पष्ट नहीं हो पाया ना, मैं क्या कहना चाह रहा हूँ? चलिए इसे मैं आपको अपने उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ।
दोस्तों मैं अब उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जहाँ मुझे शारीरिक और मासिक स्वास्थ्य को अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिये। यह जानने और मानने के बाद भी मेरी दिनचर्या में बहुत सी ऐसी बातें हैं जो मेरी आदतों की वजह से इस प्राथमिकता से मेल नहीं खाती है। जैसे, अपने व्यवसायिक कमिटमेंट को हर हाल में, तय समय से पहले पूरा करने के प्रयास में कई बार व्यायाम और मॉर्निंग वॉक को मिस कर देना या फिर कई बार जानते बुझते भी उन चीजों को खाना जो आपको लंबे समय में नुक़सान पहुँचा सकती है।
सीधे-सीधे शब्दों में कहूँ, तो अक्सर हम अपनी इंद्रियों के ग़ुलाम होने के कारण उन कार्यों को करते या बार-बार दोहराते हैं, जो लंबे समय में हमारे लिए नुकसानदायी होते हैं। साथियों, जानते-बुझते भी इस गलती को जीवनभर दोहराने की मुख्य वजह अपने मन को वश में ना रख पाना है। इसीलिए तो कहते हैं, ‘जिसका मन वश में नहीं है, वही विवश है!’ इसलिए मेरा मानना है कि जब तक आप अपनी इन इंद्रियों या और स्पष्ट कहूँ तो अपने मन पर विजय प्राप्त नहीं करेंगे तब तक मूल्यों और प्राथमिकताओं पर आधारित जीवन को जी पाना संभव नहीं है।
जी हाँ साथियों, सामान्यतः हमारा मन ना तो कभी संतुष्ट या तृप्त होता है और ना ही कभी शांत बैठता है। इसी वजह से अक्सर हम लोग जो होता है, उसे नज़रंदाज़ कर, जो नहीं होता उनपर याने अभावों पर ध्यान देने लगते हैं और दुखी रहते हैं। वैसे, इसे आप जो चीज नहीं है या नहीं मिली है की ओर ध्यान आकर्षित करने की हमारे मन की प्रवृति भी मान सकते हैं। जैसे, किसी व्यक्ति या स्थान पर ज़रा सा सम्मान कम मिला तो हमें अपमान का एहसास होने लगता है।
अगर आप इसी परिस्थिति पर थोड़ा गंभीरता से विचार करेंगे तो पायेंगे कि मान-अपमान का यह बोध सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे मन की उपज था। इसीलिए गीता जी में भगवान श्री कृष्ण ने हमारे मन को बड़ा चंचल, भटकने वाला, दृढ़ और बलवान बताया है। जिसे रोकना वायु को रोकने समान है। इस आधार पर कहा जाये तो मान-अपमान, सुख-दुख, अच्छा-बुरा, शांति-अशांति आदि का बोध हमें हमारा मन ही कराता है। अर्थात् यह सभी चीजें हमें बाहर से नहीं, भीतर से मिलती है जिसका बोध हमें हमारा मन कराता है।
दोस्तों, इस दुनिया में ज़्यादातर लोग ग़ुलामी वाला जीवन जी रहे हैं। सुनने में थोड़ा अटपटा लग रहा है ना? लेकिन यक़ीन मानियेगा बात जो मैं कह रहा हूँ, है बिलकुल सच। अगर सहमत ना हों तो ज़रा अपनी प्राथमिकताओं, आदतों और फिर दिनचर्या को बारीकी से देख लें। अभी भी स्पष्ट नहीं हो पाया ना, मैं क्या कहना चाह रहा हूँ? चलिए इसे मैं आपको अपने उदाहरण से समझाने का प्रयास करता हूँ।
दोस्तों मैं अब उम्र के उस पड़ाव पर हूँ जहाँ मुझे शारीरिक और मासिक स्वास्थ्य को अपनी पहली प्राथमिकता बनाना चाहिये। यह जानने और मानने के बाद भी मेरी दिनचर्या में बहुत सी ऐसी बातें हैं जो मेरी आदतों की वजह से इस प्राथमिकता से मेल नहीं खाती है। जैसे, अपने व्यवसायिक कमिटमेंट को हर हाल में, तय समय से पहले पूरा करने के प्रयास में कई बार व्यायाम और मॉर्निंग वॉक को मिस कर देना या फिर कई बार जानते बुझते भी उन चीजों को खाना जो आपको लंबे समय में नुक़सान पहुँचा सकती है।
सीधे-सीधे शब्दों में कहूँ, तो अक्सर हम अपनी इंद्रियों के ग़ुलाम होने के कारण उन कार्यों को करते या बार-बार दोहराते हैं, जो लंबे समय में हमारे लिए नुकसानदायी होते हैं। साथियों, जानते-बुझते भी इस गलती को जीवनभर दोहराने की मुख्य वजह अपने मन को वश में ना रख पाना है। इसीलिए तो कहते हैं, ‘जिसका मन वश में नहीं है, वही विवश है!’ इसलिए मेरा मानना है कि जब तक आप अपनी इन इंद्रियों या और स्पष्ट कहूँ तो अपने मन पर विजय प्राप्त नहीं करेंगे तब तक मूल्यों और प्राथमिकताओं पर आधारित जीवन को जी पाना संभव नहीं है।
जी हाँ साथियों, सामान्यतः हमारा मन ना तो कभी संतुष्ट या तृप्त होता है और ना ही कभी शांत बैठता है। इसी वजह से अक्सर हम लोग जो होता है, उसे नज़रंदाज़ कर, जो नहीं होता उनपर याने अभावों पर ध्यान देने लगते हैं और दुखी रहते हैं। वैसे, इसे आप जो चीज नहीं है या नहीं मिली है की ओर ध्यान आकर्षित करने की हमारे मन की प्रवृति भी मान सकते हैं। जैसे, किसी व्यक्ति या स्थान पर ज़रा सा सम्मान कम मिला तो हमें अपमान का एहसास होने लगता है।
अगर आप इसी परिस्थिति पर थोड़ा गंभीरता से विचार करेंगे तो पायेंगे कि मान-अपमान का यह बोध सिर्फ़ और सिर्फ़ हमारे मन की उपज था। इसीलिए गीता जी में भगवान श्री कृष्ण ने हमारे मन को बड़ा चंचल, भटकने वाला, दृढ़ और बलवान बताया है। जिसे रोकना वायु को रोकने समान है। इस आधार पर कहा जाये तो मान-अपमान, सुख-दुख, अच्छा-बुरा, शांति-अशांति आदि का बोध हमें हमारा मन ही कराता है। अर्थात् यह सभी चीजें हमें बाहर से नहीं, भीतर से मिलती है जिसका बोध हमें हमारा मन कराता है।