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दोस्तों, कल मध्यप्रदेश की व्यवसायिक राजधानी इंदौर के पास स्थित एक छोटे से शहर धार में ‘ज्ञानकुंज प्ले स्कूल’ द्वारा आयोजित ‘नन्हे उस्ताद किड्स कार्निवल’ में भाग लेने का मौक़ा मिला, जिसमें 2-7 वर्ष के बच्चों के लिए विभिन्न खेल, फ़ैन्सी ड्रेस, गायन, डांस, हेल्दी बेबी जैसी कई प्रतियोगिताएँ आयोजित की गई थी। उक्त कार्यक्रम में बच्चों के उत्साह और तैयारियों के साथ-साथ प्रदर्शन के लिए चुने गए गानों या रोल को देख मैं हैरान रह गया । बड़े शहरों में जहाँ इस उम्र के बच्चे फ़िल्मी गानों को चुनना पसंद करते हैं, वहीं धार के 3-7 साल के बच्चे बहुत आराम से भजन, गणेश स्तुति, विभिन्न मंत्र, रानी लक्ष्मीबाई, सैनिक के रूप में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। उन बच्चों को इस तरह प्रदर्शन करता देख मैं सोच रहा था, छोटे शहरों में हम बहुत खूबसूरती से अपनी संस्कृति को नई पीढ़ी से जोड़कर, उसे सुदृढ़ बनाते जा रहे हैं।
वहीं इन बच्चों के पालक अलग-अलग समूह में विभिन्न गतिविधियों में व्यस्त थे। जैसे बच्चों की कला का प्रदर्शन अच्छे से करवाना, उन्हे प्ले ज़ोन में खिलाना या फिर समूह बनाकर चर्चा करना। चर्चा में मगन समूह, मुख्यतः दो भागों में बंट गया था। पहला समूह विद्यालय के 20000 वर्ग फ़ीट से अधिक जगह में फैले इंफ़्रास्ट्रक्चर को देख कह रहा था, ‘प्ले स्कूल तो खेलने के लिए होता है। इसलिए यह सारी सुविधाएँ होना ज़रूरी है।’, वहीं समूह के बचे हुए लोग इसके ठीक विपरीत सभी चीजों को फ़ालतू का दिखावा बता रहे थे। कुछ के अनुसार, शिक्षा भी अब व्यापार हो गई थी।
मैं लोगों की मिश्रित प्रतिक्रिया देख हैरान था। इसलिए नहीं कि वे किसी के अच्छे प्रयास की सराहना नहीं कर रहे थे, बल्कि इसलिए कि उन्हें यह पता नहीं था की बच्चों की शिक्षा में शुरुआती सालों का कितना अधिक महत्व होता है। दोस्तों, माफ़ कीजिएगा थोड़ा कड़वा और स्पष्ट बोल रहा हूँ, लेकिन यह आने वाली पीढ़ी के भविष्य का सवाल है। इसलिए हमें इस पर खुलकर चर्चा करना ही होगी। असल में दोस्तों, रिसर्च का एक आँकड़ा बताता है कि हम अपने जीवन में जो भी हमेशा के लिए सीखते हैं अर्थात् परमानेंट लर्निंग करते हैं, उसका 90 प्रतिशत हम 14 वर्ष तक सीख जाते हैं और इस 90 प्रतिशत का भी 90 प्रतिशत हम 7 साल की उम्र तक सीख लेते हैं। इस आधार पर इन वर्षों में मिली शिक्षा का महत्व बढ़ जाता है।
चलिए थोड़ी देर के लिए इन तथ्यों को भी एक तरफ़ रख, बच्चों के स्वाभाविक तौर पर बड़ा होने की प्रक्रिया को देख लेते हैं। मान लीजिए आप किसी छोटे से बच्चे को खिलाने के लिए जाते हैं और आप उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं। अब बताइए आप क्या करेंगे? चुटकी या ताली बजाएँगे। सही कहा ना मैंने? लेकिन अगर आप इसी चुटकी या ताली को कई बार उस बच्चे के सामने बजाते हैं तो वह क्या करता है? वह भी चुटकी या ताली बजाने का प्रयास करता है। ठीक इसी तरह वह चलना, बोलना, भाषा, चीजों का उपयोग करना आदि सीख जाता है। असल में दोस्तों इसकी मुख्य वजह जन्म के साथ ही बच्चे के अंदर स्वाभाविक रूप से सीखने की ललक का होना है। इस उम्र में बच्चे का ऑब्ज़र्वेशन कौशल और जिज्ञासा अधिकतम होती है। साथ ही वह डर जैसे अन्य नकारात्मक भावों से भी कोसों दूर होता है। इसी कारण उसके सामने जो भी वस्तु, व्यक्ति या माहौल आता है, वह उसे समझने या सीखने का प्रयास करने लगता है। उदाहरण के लिए खिलौना चल कैसे रहा है जानने के प्रयास में उसे तोड़ देना।
इसी उम्र में दोस्तों उस बच्चे में बहुत तेज़ी से शारीरिक बदलाव आते हैं। इसलिए हमें सामान्य शिक्षा के साथ-साथ उसकी शारीरिक क्षमता के विकास पर भी काम करना चाहिए। इसके लिए हमें उसकी मसल्स को ताकतवर बनाने अर्थात् फ़ाइन और ग्रोस मोटर स्किलस, सेन्सेस और कोर्डिनेशन आदि पर काम करना होगा। उपरोक्त दोनों प्रकार की शिक्षा के लिए हमें उसे शारीरिक गतिविधियों के साथ अधिकतम एक्सपोजर देने की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन सामान्यतः पालक बच्चे की सुरक्षा के डर अथवा जानकारी के अभाव में ऐसा कर नहीं पाते हैं और पूरी तरह सकारात्मक मन के अंदर कई प्रकार के डर या नकारात्मक भाव बैठाते जाते हैं। जैसे पलंग, सोफ़े, टेबल आदि के नीचे घुसने पर ‘बाऊ’ से डराना, घर से बाहर जाने पर, ‘झोली वाले बाबा’ से डराना अथवा स्टोर रूम या किसी भी अंधेरी जगह जाने पर ‘भूत’ का डर दिखाना, आदि। बाद में यही डर या कमियाँ उसके सीखने की सामान्य प्रक्रिया को बाधित करने लगती हैं।
याद रखिएगा दोस्तों बड़ी कक्षाओं से ज़्यादा ज़रूरी छोटी कक्षाओं में बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देना है क्यूँकि उसके जीवन की नींव इस उम्र में सीखी और समझी गई बातों पर बनती है। इसीलिए मैं हमेशा कहता हूँ जीवन के शुरुआती साल आपके जीवन की दिशा तय करते हैं, इसलिए अपने बच्चे के लिए उपरोक्त बातों के आधार पर अच्छा स्कूल चुनिए, साथ ही उसे ढेर सारा समय देकर सही तरीके से ढालिए।
दोस्तों, कल मध्यप्रदेश की व्यवसायिक राजधानी इंदौर के पास स्थित एक छोटे से शहर धार में ‘ज्ञानकुंज प्ले स्कूल’ द्वारा आयोजित ‘नन्हे उस्ताद किड्स कार्निवल’ में भाग लेने का मौक़ा मिला, जिसमें 2-7 वर्ष के बच्चों के लिए विभिन्न खेल, फ़ैन्सी ड्रेस, गायन, डांस, हेल्दी बेबी जैसी कई प्रतियोगिताएँ आयोजित की गई थी। उक्त कार्यक्रम में बच्चों के उत्साह और तैयारियों के साथ-साथ प्रदर्शन के लिए चुने गए गानों या रोल को देख मैं हैरान रह गया । बड़े शहरों में जहाँ इस उम्र के बच्चे फ़िल्मी गानों को चुनना पसंद करते हैं, वहीं धार के 3-7 साल के बच्चे बहुत आराम से भजन, गणेश स्तुति, विभिन्न मंत्र, रानी लक्ष्मीबाई, सैनिक के रूप में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे थे। उन बच्चों को इस तरह प्रदर्शन करता देख मैं सोच रहा था, छोटे शहरों में हम बहुत खूबसूरती से अपनी संस्कृति को नई पीढ़ी से जोड़कर, उसे सुदृढ़ बनाते जा रहे हैं। वहीं इन बच्चों के पालक अलग-अलग समूह में विभिन्न गतिविधियों में व्यस्त थे। जैसे बच्चों की कला का प्रदर्शन अच्छे से करवाना, उन्हे प्ले ज़ोन में खिलाना या फिर समूह बनाकर चर्चा करना। चर्चा में मगन समूह, मुख्यतः दो भागों में बंट गया था। पहला समूह विद्यालय के 20000 वर्ग फ़ीट से अधिक जगह में फैले इंफ़्रास्ट्रक्चर को देख कह रहा था, ‘प्ले स्कूल तो खेलने के लिए होता है। इसलिए यह सारी सुविधाएँ होना ज़रूरी है।’, वहीं समूह के बचे हुए लोग इसके ठीक विपरीत सभी चीजों को फ़ालतू का दिखावा बता रहे थे। कुछ के अनुसार, शिक्षा भी अब व्यापार हो गई थी। मैं लोगों की मिश्रित प्रतिक्रिया देख हैरान था। इसलिए नहीं कि वे किसी के अच्छे प्रयास की सराहना नहीं कर रहे थे, बल्कि इसलिए कि उन्हें यह पता नहीं था की बच्चों की शिक्षा में शुरुआती सालों का कितना अधिक महत्व होता है। दोस्तों, माफ़ कीजिएगा थोड़ा कड़वा और स्पष्ट बोल रहा हूँ, लेकिन यह आने वाली पीढ़ी के भविष्य का सवाल है। इसलिए हमें इस पर खुलकर चर्चा करना ही होगी। असल में दोस्तों, रिसर्च का एक आँकड़ा बताता है कि हम अपने जीवन में जो भी हमेशा के लिए सीखते हैं अर्थात् परमानेंट लर्निंग करते हैं, उसका 90 प्रतिशत हम 14 वर्ष तक सीख जाते हैं और इस 90 प्रतिशत का भी 90 प्रतिशत हम 7 साल की उम्र तक सीख लेते हैं। इस आधार पर इन वर्षों में मिली शिक्षा का महत्व बढ़ जाता है। चलिए थोड़ी देर के लिए इन तथ्यों को भी एक तरफ़ रख, बच्चों के स्वाभाविक तौर पर बड़ा होने की प्रक्रिया को देख लेते हैं। मान लीजिए आप किसी छोटे से बच्चे को खिलाने के लिए जाते हैं और आप उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना चाहते हैं। अब बताइए आप क्या करेंगे? चुटकी या ताली बजाएँगे। सही कहा ना मैंने? लेकिन अगर आप इसी चुटकी या ताली को कई बार उस बच्चे के सामने बजाते हैं तो वह क्या करता है? वह भी चुटकी या ताली बजाने का प्रयास करता है। ठीक इसी तरह वह चलना, बोलना, भाषा, चीजों का उपयोग करना आदि सीख जाता है। असल में दोस्तों इसकी मुख्य वजह जन्म के साथ ही बच्चे के अंदर स्वाभाविक रूप से सीखने की ललक का होना है। इस उम्र में बच्चे का ऑब्ज़र्वेशन कौशल और जिज्ञासा अधिकतम होती है। साथ ही वह डर जैसे अन्य नकारात्मक भावों से भी कोसों दूर होता है। इसी कारण उसके सामने जो भी वस्तु, व्यक्ति या माहौल आता है, वह उसे समझने या सीखने का प्रयास करने लगता है। उदाहरण के लिए खिलौना चल कैसे रहा है जानने के प्रयास में उसे तोड़ देना। इसी उम्र में दोस्तों उस बच्चे में बहुत तेज़ी से शारीरिक बदलाव आते हैं। इसलिए हमें सामान्य शिक्षा के साथ-साथ उसकी शारीरिक क्षमता के विकास पर भी काम करना चाहिए। इसके लिए हमें उसकी मसल्स को ताकतवर बनाने अर्थात् फ़ाइन और ग्रोस मोटर स्किलस, सेन्सेस और कोर्डिनेशन आदि पर काम करना होगा। उपरोक्त दोनों प्रकार की शिक्षा के लिए हमें उसे शारीरिक गतिविधियों के साथ अधिकतम एक्सपोजर देने की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन सामान्यतः पालक बच्चे की सुरक्षा के डर अथवा जानकारी के अभाव में ऐसा कर नहीं पाते हैं और पूरी तरह सकारात्मक मन के अंदर कई प्रकार के डर या नकारात्मक भाव बैठाते जाते हैं। जैसे पलंग, सोफ़े, टेबल आदि के नीचे घुसने पर ‘बाऊ’ से डराना, घर से बाहर जाने पर, ‘झोली वाले बाबा’ से डराना अथवा स्टोर रूम या किसी भी अंधेरी जगह जाने पर ‘भूत’ का डर दिखाना, आदि। बाद में यही डर या कमियाँ उसके सीखने की सामान्य प्रक्रिया को बाधित करने लगती हैं। याद रखिएगा दोस्तों बड़ी कक्षाओं से ज़्यादा ज़रूरी छोटी कक्षाओं में बच्चों की शिक्षा पर ध्यान देना है क्यूँकि उसके जीवन की नींव इस उम्र में सीखी और समझी गई बातों पर बनती है। इसीलिए मैं हमेशा कहता हूँ जीवन के शुरुआती साल आपके जीवन की दिशा तय करते हैं, इसलिए अपने बच्चे के लिए उपरोक्त बातों के आधार पर अच्छा स्कूल चुनिए, साथ ही उसे ढेर सारा समय देकर सही तरीके से ढालिए।
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